लेखक की कलम से

मिनाम : स्त्रियों की व्यथा- कथा …

पुस्तक समीक्षा

 

मिनाम- मोर्जुम लोयी का मूल हिन्दी में लिखा उपन्यास है जो उत्तर- पूर्व भारत के बारे में हमारी कई धारणाओं और मिथों का विखंडन करता है। मोर्जुम लोयी स्वयं अरुणाचल प्रदेश के गालो आदिवासी समुदाय से हैं जो बिनी याडा गवर्नमेंट वुमेंस कालेज, लेखी ईटा नगर में हिन्दी साहित्य की प्राध्यापक हैं। सेविन सिस्टर्स कहे जाने वाले भारत के उत्तर- पूर्व राज्यों के बारे में यह आम धारणा है कि वहाँ मातृसत्तात्मक समुदाय हैं जबकि इस उपन्यास से पता चलता है कि उस क्षेत्र में बहुतायत पितृसत्तात्मक समुदायों की ही है। इसी प्रकार यह माना जाता है कि आदिवासी समुदायों में स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र हैं। जबकि यह उपन्यास थेरी- गाथाओं की तरह स्त्रियों की व्यथा- कथाओं की एक दर्दनाक श्रृंखला प्रस्तुत करता है।

मूल कथा में तो यामी और मिनाम नामक दो स्त्रियों के दुर्धुष जीवन संघर्ष की गाथाएं हैं लेकिन प्रसंगवश अनेक स्त्रियों की यातना- कथाएँ भी इससे आ जुड़ी है। यामी एक गरीब घर की लड़की है जो किसी तरह बारहवीं तक की पढाई करके सीखे हुए को अपने गाँव में लागू करने लगती है। वह गाँव के बंद पडे स्कूल में बच्चों को इकट्ठा कर पढाने लगती है। महिलाओं को साफ- सफाई सिखाने और जागरूक करने में जोश- खरोश से जुट जाती है। स्कूल में गाँव के मुखिया का उद्दंड बेटा भी आता है जो उम्र में लगभग यामी के बराबर ही है। एक दिन यामी उसे किसी शरारत पर दंडित करती है तो वह अपने बाप से जाकर शिकायत करता है, साथ ही जिद करता है कि यामी की शादी उससे कर दी जाये। यामी के विरोध के बावजूद उसकी शादी उसी से कर दी जाती है और फिर शुरू होता है उसके उत्पीड़न का अनन्त सिलसिला, जिसका अंत उसकी मृत्यु के साथ ही होता है। यामी की बेटियाँ आगे की पढाई करने दिल्ली जाती हैं जहाँ उनकी मुलाकात मिनाम से होती है। मिनाम की कथा उसकी डायरी से है।

डायरी में मिनाम के इस स्वगत- कथन से न केवल हम उसके जीवन- संघर्ष को जान सकते हैं बल्कि इस पर वहाँ की स्त्रियों के संघर्ष की छायाएं भी हैं : … मैं जहाँ भी जाती हूं या मुझ जैसे लोग जहाँ भी जाते हैं, हमारी कहानी हमसे आगे-आगे जाती है। जो हमारी जिन्दगी के सत्य से परे लोगों की सोच और राय पर निर्भर एक कहानी होती है, जहाँ हम शोषित महिला न होकर कलंकिनी, पापिन होती हैं।…हां, हां, हां..! मैं तलाकशुदा हूं… हां .. मेरी एक बेटी भी है.. तो इसमें मेरी क्या गलती है? तंग आ गयी हूं आप सबके शब्दबाणों से, सब के अमानवीय बर्ताव से, आप सबकी उपेक्षाओं, अवहेलनाओं से, नफरत से, अछूत जैसे व्यवहार से… आप सब मुझसे ऐसे पेश आ रहे हैं, जैसे कि मैं कोई शातिर अपराधी हूं… क्या यह मेरी गलती है? मैं ने गलत इंसान को अपना जीवन- साथी चुना? तो क्या यह मेरी गलती थी जो मैं ने अपनी पढाई छोड़कर उसे पढने भेजा ? क्या यह भी मेरी गलती थी कि मेरा पति दूसरी लडकियों के पीछे पड़ा रहता था? क्या यह मेरी गलती थी, जो उसने भाई- बहन के पवित्र रिश्ते को कलंकित किया? क्या यह भी मेरी गलती थी जो उसने देवर- भाभी के रिश्ते को अपवित्र कर दिया… क्या यह मेरी गलती थी जो वो रोज बिना कारण मेरी पिटाई करता था?

तुम कुर्बानी-कुर्बानी कहते हो, मुझसे पूछो, प्यार में कुर्बानी देना क्या होता है। तुम समर्पण- समर्पण करते हो, मुझसे पूछो, प्यार में समर्पित होना क्या होता है। तुम दर्द- दर्द करते हो, मुझसे पूछो, बिना किसी गलती के पिटने का दर्द क्या होता है। … तुम पीडा- पीडा करते हो, मुझसे पूछो- मार, धोखा, गरीबी, भूख की असली पीडा किसे कहते हैं… ऐसा कोई दर्द, ऐसी कोई तकलीफ नहीं जो मैं ने न देखी हो… मार मैं ने खायी, जुल्म मुझ पर हुआ, धोखा मैं ने खाया… फिर भी समाज की नजरों में मैं क्यों गलत हूं ? गलत तो मैं तब भी नहीं थी, जब मैं लड़की पैदा हुई थी… सच कहा जाए तो मेरी जिंदगी में दुखों का सिलसिला मेरे बचपन में ही शुरू हो गया था… पता नहीं क्यों? मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूं कि मेरे परिवार में मेरी क्या हैसियत थी…क्या मुझे वो सब प्यार मिला, जो मुझे मिलना चाहिए? इस सवाल का जबाव बहुत मुश्किल है…

आगे यह अंश उपरोक्त वक्तव्य का ही पूरक है : … आज मैं सोचती हूं काश ! जिन्दगी एक किताब होती ! तो मैं उन पन्नों को फाड डालती जिसमें मेरी नासमझी, पागलपन, भय, पीडा, वेदना आदि सभी निराशाजनक घटना- क्रम वर्णित हैं। काश मैं पैदा न हुई होती ! काश, मुझे अच्छी परवरिश मिली होती! काश! मेरा तलाक न हुआ होता ! पर यह जिन्दगी है, कोई पुस्तक नहीं..हां, मैं एक विषय जरूर हूं।

इस पुस्तक में भी वे पन्ने फाडे नहीं गये हैं बल्कि अहमियत भी उन्ही पहलुओं को मिली है। मिनाम तलाक के बाद एक गैर- आदिवासी से शादी करती है तब भी उसका समुदाय एतराज करता है। उत्तर- पूर्व में बहु- विवाह प्रचलन में है और समृद्ध लोग ही नहीं शिक्षित भी दूसरी शादी कर लेते हैं। ऐसे भी जो अपनी पत्नी की कमाई से पढाई करके नौकरी पाते हैं। लैंगिक- भेद और एक हद तक बाल- विवाह के चलन के साथ ऐसे भी परिवार हैं जहाँ स्त्रियों को एकाधिक पुरुषों से संबंध रखने होते हैं। स्त्रियों से जुड़ी ऐसी अनेक जटिल और त्रासद परिघटनाओं के उपन्यास में प्रसंग हैं जो उनके परस्पर संबंधों को भी विषैले बना देती हैं।

अंततः उपन्यास विश्वसनीय और स्वाभाविक तरीके से  यामी और मिनाम ही नहीं, अनेक स्त्रियों के उदात्त और प्रेरक चरित्र खडे करता है। इसमें आदिवासी जीवन के प्रकृति से साहचर्य, उनकी जिजीविषा तथा कला- संस्कृति की इतनी डिटेल हैं कि वह सब हमारे समक्ष जीवंत हो उठता है। लोककथाओं और लोक-गीतों को कथानक के साथ पिरोया है। कुछ अनगढता और संरचनात्मक सीमाओं के बावजूद कथा का स्वत: स्फूर्त प्रवाह और भावना पगी भाषा बड़ी ताकत हैं। मार्जुम लोयी की इस कृति में कहानी से गुंथी कुछ नयी कविताएँ भी हैं जो संभवतः उन्ही की है। बोधि प्रकाशन की ऐसे रचनाकारों तक पहुँच का स्वागत करना चाहिए।

 

 

©राजा राम भादू, जयपुर  / राजस्थान 

 

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