लेखक की कलम से
अग्नि –गर्भा …
अंतर्मन पर
लिपटी
गहराती
बढ़ती
परछाई से तुम ।
वो ठंडी
सुगंधित बयार
जिसे देखा भी नहीं
छुआ भी नहीं
सिर्फ महसूसा है ।
जैसे बुलाता हो
समंदर
झरने को
और
झरने को गिरना हो
समंदर में ..
पर उलझन है
कशमकश है
कि..
आगे बढूं तो तड़प
पीछे हटूं तो कसक ।
इस भंवर में
नीलकंठी हो गई हूं ।
आग को समेटे
अग्नि गर्भा हो गई मैं ।
आग को समेटे
अग्नि गर्भा हो गई मैं…
©दीप्ति गुप्ता, रांची, झारखंड