लेखक की कलम से

सम्बल …

 

अंधेरी राहों में,

अगर कोई हमसफ़र मिल जाए,

तो शुकून मिलता है।

किसी के साथ होने का

अहसास मिलता है।

लगता है अंधेरे बंट जाएंगे।

मुश्किलों के बादल छंट जाएंगे।

मगर जब अंधेरों के सैलाब आते हैं।

पांव डगमगाते हैं।

तो अपने हिस्से का अंधेरा

खुद ही के पास रहता है।

राह तलाशने के जिम्मा

ख़ुद ही के पास रहता है।

 

कंटीली कठिन राहों में

अगर कोई हमकदम मिल जाये,

तो एक विश्वास रहता है।

एक सम्बल रहता है

कि गिरने लगे तो दो हाथ

गिरने से रोक लेंगे।

सहारा देंगे।

मगर जब कांटों पर पांव पड़ता है।

चुभन का जो अहसास होता है।

उस से ख़ुद को ही गुजरना होता है।

दर्द को ख़ुद ही समझना होता है।

सम्भलना होता है।

 

ग़मगीन पलों में जब

कोई हमदर्द मिलता है,

तो ग़म बंट जाने का

भ्रम पलता है।

अकेलेपन का अहसास मिटता है।

लगता है आंसू गिरे तो

पोंछ देगा कोई अपना।

तसल्ली दे जाता है ऐसा सपना।

मगर जब ग़मों का पहाड़ टूटता है।

होंसला छूटता है।

तो जख़्मी तो अपना ही

तन मन होता है।

हिम्मत बटोर  ख़ुद ही

राहों में आगे बढ़ना होता है।

 

तो मन मेरे,

ख़ुद ही ख़ुद का सम्बल बन कर चल।

हौंसलों को बुलंद कर के चल।

आशा के दिए जला कर चल।

मंजिल को हासिल करने का

सपना आँखों में बसा कर चल।

आहिस्ता आहिस्ता जीत पास आएगी।

हौंसलों से बच कर

भला कहां जाएगी?

 

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात

 

 

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