लेखक की कलम से

दोहरा चरित्र …

“चलिए न दामाद जी। बड़े ज्ञानी बाबा हैं वे। साल में एक बार ही हमारे शहर आते हैं सत्संग के लिए। उनकी बातें सुनकर आत्मिक सुकून मिलता है। बड़ी भारी संख्या में लोग आते हैं उनके सत्संग को सुनने। “ससुर जी ने अपने दामाद विनय को साथ चलने कहा तो पहले विनय ने काम का हवाला देकर मना कर दिया। उसका स्पष्ट मानना था कि हमारे अच्छे या बुरे कर्म ही शांति अथवा अशांति का कारण बनते हैं। अक्सर बड़े-बड़े संत और महात्मा भी मनुष्य के अच्छे कर्मों की बात कहते है। पर ससुर जी के निरंतर किये जाने वाले आग्रह को वह टाल नहीं सका।

ठीक समय पर वे लोग सत्संग की जगह पर पहुँचे। ससुर जी सबसे आगे बैठने को लालायित दिखे। ताकि उन ज्ञानी बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन हो सके। बाबा जी ने सत्संग शुरू किया और सभी को सत्य की राह पर चलने,क्रोध और वाणी पर नियंत्रित रखने जैसी बातों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया।

जब सत्संग पूरा हुआ और घर लौटने का समय आया तो पता चला कि साले साहब केन्टीन में पेट-पूजा कर रहे हैं। ससुर जी को यह सुनकर गुस्सा आ गया और वे वहीं अपने बेटे को गालियाँ देने लगे। विनय को आश्चर्य हुआ कि अभी थोड़ी देर पहले ही सत्संग में जिन बुराईयों से दूर रहने की सलाह दी गयी थीं, वे सब उनमें मौजूद थीं। गाड़ी में चलते समय विनय ने बड़ी विनम्रता से ससुर जी से पूछा,”पिताजी,बाबा जी ने जिन बुराईयों से सावधान किया था,वे सब तो आपमें मौजूद है फिर ऐसे सत्संग का क्या लाभ?”

ससुर जी को फिर गुस्सा आ गया पर अबकी बार सामने बेटा नहीं दामाद था और उसने सत्यतापूर्ण प्रश्न पूछा था इसलिए वे इतना ही कहने लगे,”अरे बेटा,ये सत्संग वाली बातें वहीं अच्छी लगती हैं। बाहरी दुनियादारी में इन सब बातों को अमल करना संभव नहीं। ”

 विनय उनके इस दोहरे चरित्र को देख हैरान रह गया।

 

©राजेश रघुवंशी, मुम्बई                       

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