लेखक की कलम से

कुएं की प्यास …

 

कुआं जो पड़ा

 

मुंह औंधे प्यासे

 

के मानिन्द बाहर,

 

उस इंतजार में

 

कोई तो आए,

 

मुझे भूल गए सब

 

मैं भी प्यासा हूं

 

तुम्हारी तरह

 

बतियाने को सुनने को

 

वो सखियां छोड़ गई मुझको

 

जो कभी अपने सुख दु:ख

 

मेंरे कंधों पर मटका रख

 

कहती थीं

 

अब कहां फुरसत

 

मेंरे लिए उनको

 

उनके सौंदर्य को निहारने की

 

ललक जाग उठती है

 

जब सांझ को बैठतीं

 

मेंरी ओट में

 

और हंसी ठिटोली करतीं

 

अब मेंरी जगह ले ली

 

गैरों ने ठंडा पानी देकर

 

मैं दु:खी हूं अकेलेपन से

 

मैं भी तो ताजा शुद्ध पानी देता

 

मुख मोड़कर क्यों चले गए मुझसे सभी

 

क्यों नीम की छांव को

 

भी अनदेखा कर दिया

 

जो निरोगी रख

 

देते सौन्दर्य की छवि

 

मेंरे होने को नकार कर

 

छोड़ दिया

 

अकेले असहाय पड़ा

 

मेंरा गला सूख रहा

 

मुझे उफनने न दो

 

मरने न दो

 

बात करो मुझसे

 

बाहर निकलो मेंरे पास बैठो

 

बूढ़ा हो गया हूं

 

अब तो अकेला मत छोड़ो मुझे

 

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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