लेखक की कलम से

औकात हिंदी की …

 

मैनें देखी है औकात

बचपन से हिंदी की,

कहते तो बहुत हैं

हिंदी हमारी मातृभाषा है,

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है

पर इस विभिन्न भाषीय देश में

इसका स्थान कहाँ आता है?

हिंदी में बात करो,

हिंदी को प्रमोट करो,

पर मैनें तो महसूस किया है

कि हिंदी में बात करने वालों को

हमेशा हीन भावना से देखा जाता है

क्योंकि हिंदी तो है बेचारी

अपनों के धक्कों की मारी।

सरकार कहती है कि

हिंदी का बोलबाला हो,

हर जगह हिंदी में

फॉर्म भी उपलब्ध हैँ,

पर मैनें देखा है और

महसूस भी किया है कि

जब कोई हिंदी में फॉर्म भरता है तो

पहले कनखियों से इधर-उधर देखता है

शायद शर्म महसूस करता है।

ऐसा क्यों?

हर देश अपनी भाषा को

एहमियत देता है

उस पर गर्व महसूस करता है

फिर हमारे देश में लोग

हीन भावना से ग्रस्त क्यों हैं?

 

कितने चाहते हैं इसे सीखना?

सिखाते हैं माता-पिता

छोटे पन से ही,

सिट-स्टैंड,

कम एंड गो,

ईट एंड ड्रिंक।

फलों के नाम अंग्रेज़ी में

सब्ज़ियों के भी अंग्रेज़ी में

होती है सुबह-गुड मॉर्निंग

शाम को-गुड इवनिंग,

आओ-जाओ

उठो-बैठो

खाओ-पियो

सब हो गया है बंद

नहीं करता अभिनंदन अब

करके कोई हाथ बंद।

 

हाय हेलो चली है

अंग्रेज़ी ही बड़ी है

क्योंकि बहुतों का मानना है कि

अंग्रेज़ी को सीखने में

बहुत समय लगता है

और हिंदी तो अपनी ही भाषा है

बच्चा खेल-खेल में ही सीख लेता है।

 

दो नावों में सवार

कोई आगे बढ़ नहीं पाता,

इसी चक्कर में वो

धोबी के कुत्ते जैसा

न रहता है घर का

और न रहता है घाट का,

अंग्रेज़ी सीख नहीं पाता औऱ

हिंदी कोई बोलने नहीं देता।

 

कैसे बोलने दें?

पैदा होते ही,

अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाया

इतना पैसा लगाया

ना बोला अंग्रेज़ी

तो लोग क्या कहेंगे?

अंग्रेज़ी नहीं आती का

ताना देते रहेंगे।

 

माँ-बाप भी कहते हैं

अंग्रेज़ी बोलो अंग्रेज़ी

नहीं तो अनपढ़ कहलाओगे

हिंदी का क्या है

घर-घर बोली जाती है

पढ़ने की ज़रूरत नहीं

इसे तो तुम, यूँ ही सीख जाओगे।

 

जो बच्चा हिंदी में है बोलता

उसके साथ कोई नहीं खेलता

ना ही है बात करता

मुँह चिढ़ा कर कहते हैं

सरकारी स्कूल में है पढ़ता लगता।

 

ओहदे वाले ही नहीं

रद्दी वाले भी हिंदी को कम आँकते हैं,

तभी तो अंग्रेज़ी की तुलना में

हिंदी की अखबार को

कम दर पर मांगते हैं।

 

©डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़                

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