लेखक की कलम से
लिहाज़ …
आधी उम्र बीत गई
इक मकाँ बनाने में
बाक़ी उम्र बीत गई
सबको अपना बनाने में
वज़ूद मेरा मिट गया
वो घरौंदा सजाने में,
भोला मन समझ न पाया
खेल राजनीति का,
नादाँ थी ना समझी मतलब
उनके रीत रिवाजों का,
तभी तो दिल चीर गया
पानी मेरी आँखों का,
हँस कर मिलती हूँ मैं सबसे
दर्द छिपाकर सीने का,
वो चलते हैं मोहरे छिपकर
हमें लिहाज चुप रहने का।
-डॉ.प्रज्ञा शारदा