मनमोहना!
मन प्रेम का तीर्थ है मेरा
नयन प्रतीक्षा में जलते दो दिये।
साँसों का आरती वंदन चल रहा है
वेदनाओं के जल से नित मन का मंदिर पखारती हूँ।
रचकर प्रेम की ऋचायें मैं तुम पे वारती हूँ।
करती हूँ स्वत्व तुमको समर्पण ओ सलोने प्रियतम,
तन मन ये पूजा में अगुरू गंध चंदन सा जल रहा है।
साँसों का आरती वंदन चल रहा है
फूल फूल झूमता है ये सारी कलियाँ गा रही हैं।
गीत हमारी प्रीत के मधुकर औ तितलियाँ गा रही हैं।
लेके सौरभ तुम्हारा ही सुरभित ये पवन चल रहा है।
साँसों का आरती वंदन चल रहा है।
मन-ग्रंथ के पृष्ठों पर अंकित सब सुधियाँ तुम्हारी हैं।
रूप किसी का भी हो संग नयन में छवियाँ तुम्हारी हैं।
गूँजते हो तुम ही बन प्रेमराग धड़कनों की सरगम में
ले स्पन्दन तुम्हारी छुअन का ये जीवन चल रहा है।
साँसों का आरती वंदन चल रहा है
जग वीथिकाओं में प्रियतम मैं कब तलक खुद को भटकाऊँगी।
न मिलोगे तुम जानती हूँ मैं बस तरसकर मर जाऊँगी।
तन से तन का तो मिलन नहीं खेल मन का है सारा
एक तुम्हारी ही झलक की आस में ये जड़-चेतन चल रहा है।
साँसों का आरती वंदन चल रहा है ।