लेखक की कलम से
पंचवर्षीय काया…
शब्दों को घंटों तपाती हूँ आग में
भाव-हथौड़े से करती हूँ प्रहार
एक…दो…नहीं,
बार-बार अनवरत..
शिल्प के पत्थर पर घिसती हूँ शब्द
चाहती हूँ तेज़ धार
बिम्बों से तराशती हूँ कथ्य
बनाती हूँ और नोकीला
भाषा से गढ़ती हूँ शब्द-हथियार
शब्द-शक्तियाँ बढ़ाती हैं
मारक-क्षमता
तैयार शस्त्र छोड़ती हूँ लक्ष्य पर
पर यह क्या !!
बेअसर रहा वार
लक्ष्य ने ओढ़ ली हैं सैकड़ों खालें
जिन्हें खींचा था उसने
सहमी आँखों वाले जीवित मनुष्यों के
ज़िंदा शरीरों से
सैकड़ों दधीचियों की अस्थियाँ छीन
वज्र कर ली स्वयं की काया
शब्दों के तीर लौट आये हैं विवश
हर पांच साल में
वह बदल लेता है मुखौटा
और, हर पांच मिनट में
कुंठित हो जाती है धार
टूट जाती है नोक
हार जाता है एक कवि
पर कभी न हारने वाला कवि-मन
फिर जुटाने लगता है भाव
तैयार करने लगता है
दूर तक वार करने वाले
नए शब्द-तीर
@सरस्वती मिश्र, कानपुर, उत्तरप्रदेश