कोरोना काल की कविता …
अखिल विश्व जब जूझ रहा था महामारी से
मैं लड़ रही थी उस काल, उस दशा, उस समय में
अपनी ही मनमानियों से …
क़े जैसे प्रकृति के विरुद्ध मैंने ही किया था
सर्वाधिक दोहन नैसर्गिक सम्पदा का …
निरंतर लिख रही थी व्यथा का आख्यान !
पांव में धंसे कांटों के दंश को सह रही थी
चुपचाप …
अस्पताल की सफ़ेद चादरों में सोख रही थी
अहिर्निश बहते अश्रुओं को ….
तल्ख़ औषधियों से मिटा रही थी अपनी बुभुक्षा
क़े मैं तब भी थी अनुरक्त !
एकाकी होना और एकांतवास करना
सदैव पीड़ा के समतुल्य है ।
मैं हाथ मिलाने की रीति से जा रही थी
बहुत दूर ….
अदूरदर्शिता के अहसास से कराहने लगा था मन ….
मैं स्वयं के संताप की ऊष्मा से होने लगी थी
समाधिस्थ……!
मैंने धूप को आलिंगनबद्ध नहीं किया था
जाने कब से …
हवाओं की छुअन से
कोई संधि नहीं हुई थी मेरी अब तक….
मैं आंखें मींचे अतीत की तंग गलियों से
गुज़रने लगी थी यकबयक …!
संसार जब लड़ रहा था
एक अनजान विषाणु से ….
मैं उस कालबेला में भी उस डंक को बर्दाश्त कर रही थी
पूरे मनोयोग से ,
जो मेरी काया को कर रहा था अविराम निर्बल ….
मुझे मेरे नीले निशानों वाले चेहरे से
घृणा होने लगी थी ….
कि – मैं छली गई थी फ़िर एक बार ….
अपने ही अनुग्रह से …..
मेरा भरोसा टूट रहा था !
मुझे आस थी अभीष्ट के आमद की …
जो संभावित न था …
संक्रमण के ऐसे विचित्र वातावरण में
मैंने उसकी हथेलियों को सहज ही
दूरस्थ होते हुए देखा था ….
इस बार मैंने उसे मुक्त कर दिया था
समस्त मानवीय प्रभारों से …
मेरी तन्द्रा टूट चुकी थी ,
मैं शीघ्रता से सामान्य होना चाहती थी
अब मेरी एक कलाई पर थे
ऊर्जा से आसक्त पीले कुसुमदल !
दूसरे हस्त की मुट्ठियों में क़ैद थे
प्रछालक…….!
©अनु चक्रवर्ती, बिलासपुर, छत्तीसगढ़