लेखक की कलम से

होलिका कैसे मनाएं …

रेत के कच्चे घरों सी
ढह रहीं संवेदनाएं,
इन तनावों के नगर में
होलिका कैसे मनाएं ?

प्रेम के संबंध अब क्यों
स्वप्न जैसे हो गए हैं,
यक्ष-प्रश्नों से कठिन
ये प्रश्न कैसे हो गए हैं,
रक्त सारा हृदय का
कच्चे रंगों सा धुल गया है
व्यर्थ झूठे आवरण सा रंग
क्यों खुद पर चढ़ाएं।

इन तनावों के नगर मे
होलिका कैसे मनाएं।।

भावनाएं बर्फ की चट्टान
जैसी जम गईं हैं
और सारी सोच भौतिक
दायरे में थम गई है,
मौन है अभिव्यक्ति
सारे बोल गूंगे हो गए हैं
किस तरह पहुंचें वहां
संवाद की संप्रेषणाएं?

इन तनावों के नगर में
होलिका कैसे मनाएं?

धर्म और अध्यात्म के
सुन्दर प्रतीकों मे पली है
होलिका ने सत्य का प्रहलाद
जब छोड़ा, जली है,
मित्र! मन का कलुष
. होली के बहाने से उलीचें
और फिर निर्भार होकर
शांति- जल से प्राण सीचें।।

क्यों भला फिर यूं ढहेंगीं
रेत सी संवेदनाएं,
इन तनावों के नगर में
होलिका हम यूं मनाएं।।

©दिलबाग राज, बिल्हा, छत्तीसगढ़

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