लेखक की कलम से

जब बहू आई तो…

अपने लिए कब जिया था

 

मां पापा की खुशी के लिए,

सब किया था

याद नहीं, अपने लिए कब जिया था।

 ब्याह हुआ तो अपनो की खुशी को,

 अपना मान लिया था,

याद नहीं, अपने लिए कब जिया था।

 बच्चे हुए तो

उनमें खुद को व्यस्त कर लिया था

याद नहीं, अपने लिए कब जिया था।

जब बहू आई तो,

 निकलने लगी सहेलियों से गुफ्तगू करने

 बेटा बोला, मां काम क्यों नहीं करती

मेरी बीवी से नहीं होगा,

 मैं बोली बेटा ताउम्र बस काम ही तो किया था,

बेटा बोला, मां क्या किया है तुमने हमारे लिए,

 मैं मुस्कुरा कर बोली,

मैंने अपने ख्वाबों का गला घोट दिया था।

बनने वाली थी मैं डॉक्टर,

 जब तुम मेरे पेट में थे,

शान से कहती हूं,

 यह त्याग मैंने तुम्हारे लिए किया था।

क्या तुम त्याग सकते हो

अपने कीमती ख्वाबों का,

मेरी खुशी के लिए।

बेटा खामोश खड़ा था।

निकल गया दबे पाव,

मैं यही सोच रही थी,

अपने लिए क्या किया था,

याद नहीं, अपने लिए कब जिया था।

©दिव्या भागवानी, शिवपुरी, मध्य प्रदेश

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