खरना
महापर्व छठ का दूसरा दिन
बिहार के मुंगेर जिला में ‘सीताचरण’ नाम से प्रसिद्ध मंदिर है। धर्मिक मान्यतानुसार सीता माता ने मुंगेर के गंगा तट पर सर्वप्रथम ‘छठ पर्व’ किया था। इसके बाद से ही इस महापर्व की शुरूआत हुई। भगवान श्रीराम जब लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे तो ‘रावण वध’ के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों ने उन्हें राजसूय यज्ञ करने को कहा। इस कार्य के लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया। परन्तु ऋषि ने भगवान राम एवं माता सीता को अपने ही आश्रम में बुलाया और गंगा जल छिड़ककर माँ सीता को पवित्र कर कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य देव की पूजा-उपासना करने के लिए कहा। जिसे आश्रम में रहकर ही उन्होंने पूरा किया। मान्यता है कि जहाँ उन्होंने पूजा सम्पन्न की थी वहाँ आज भी उनके पद्चिन्ह मौजूद है और हर वर्ष गंगा की बाढ़ में महीनों डूबे रहने पर भी उनके पद्चिन्ह धूमिल नहीं पड़े हैं। ग्रामीणों के अनुसार मंदिर आने वाला कोई भी श्रद्धालु यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता इसलिए न केवल आस-पास के लोग बल्कि दूसरे राज्य से भी लोग पूरे साल यहाँ दर्शन के लिए आते रहते हैं।
एक अन्य मान्यतानुसार ‘छठ पर्व’ की शुरूआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण द्वारा सूर्य की पूजा करके की गई थी। महादानी सूर्य पुत्र कर्ण सूर्य के परम भक्त थे और वे प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य उपासना कर उन्हें अर्घ्य देते थे। जिसके फलस्वरूप वे एक महान योद्धा बने। आज भी छठ में सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा यही है। एक और कहानी यह है कि जब पांडवों ने जुए में अपना सारा राजपाठ खो दिया तो द्रोपदी ने अपने खोए सम्मान और राजपाठ को पुनः प्राप्त करने के लिए ‘छठ व्रत’ किया था। एक और कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी। महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर का प्रसाद दिया। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र तो हुआ परन्तु वह मृत पैदा हुआ। विक्षुब्ध हो पुत्र वियोग में प्रियवद प्राण त्यागने लगे। उसी समय भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। राजन तुम मेरा पूजन करो और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत-पूज किया जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को हुई थी। अतः सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे ‘छठ’ कहा जाता है। लोक परम्परा के अनुसार सूर्य देव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। ‘छठ’ में कोई मूर्ति पूजा नहीं की जाती है।
कार्तिक शुक्ल पंचमी को ‘खरना’ कहा जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जला उपवास रखने के बाद रात्रि में प्रसाद ग्रहण करते हैं। प्रसाद के रूप में जो भोजन बनता है उसमें गन्ने के रस में खीर बनाई जाती है और घी लगी रोटी। साथ ही पाँच प्रकार के फल होते हैं। खरना के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए आस-पास के लोगों को भी निमंत्रण दिया जाता है। यहाँ नमक या चीनी किसी भी चीज का उपयोग नहीं किया जाता है। पहले पूजा कर व्रती द्वारा इस प्रसाद को ग्रहण किया जाता है फिर वहाँ उपस्थित सभी लोगों में प्रसाद बाँटा जाता है।
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