धर्म

‘नहाय खाय’ से शुरू हुआ लोक आस्था का महापर्व: छठ पूजा

1. ‘नहाय खाय’

लोक कल्याण एवं अभिष्ठ फल की प्राप्ति के लिए भगवान सूर्य के उपासना की परम्परा सदियों से चली आ रही है। शक्ति और आरोग्य के देवता हैं सूर्यदेव। सूर्यदेव की दो पत्नियाँ उषा और प्रत्यूषा है जो उनकी शक्ति मानी जाती है। ‘छठ’ पर्व में अस्ताचलगामी सूर्य की अंतिम किरण से प्रत्यूषा और व्रत पारण पर पहली किरण से ऊषा की पूजा की जाती है। यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ को ‘चैती छठ’ कहा जाता है और कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को ‘कार्तिकी छठ’ कहा जाता है। प्रायः हिन्दुओं द्वारा मनाया जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे गये हैं। ‘छठ’ पूजा का आरम्भ कब और कैसे हुआ इस संबंध में कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित है। जिनमें से कोई रामायण काल की है तो कोई महाभारत काल की, तो कुछ लोक आस्था से जुड़ी हुई है।

कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को ‘छठ पर्व’ के रूप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से यह त्योहार बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है लेकिन यह अब भारत के सभी हिस्सों में मनाया जाने लगा है और धीरे-धीरे प्रवासी भारतीयों के कारण विश्व भर में फैल गया है। ‘छठ’ केवल एक पर्व नहीं बल्कि ‘महापर्व’ है जो चार दिवसीय उत्सव है। सूर्येापासना का यह लोकपर्व दिवाली के चौथे दिन से शुरू होकर सप्तमी तक चार दिन तक चलता है। हिन्दू धर्म के देवी देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें प्रत्यक्ष मूर्त रूप में देखा जा सकता है। कई कारणों से इसे ‘पर्व’ नहीं ‘महापर्व’ कहा जाता है – विश्व में मनाया जाना वाला लगभग सभी उत्सवों में सम्भवतः यह पहला उत्सव है जिसका आरंभ अस्तलागामी सूर्य की आराधना से होता है। इस पर्व की उपासना के लिए कोई पंडित-पुजारी की जरूरत नहीं पड़ती। इसे पूरा परिवार-समाज मिलकर मनाता है। न कोई जाति का भेदभाव, नहीं कोई छोटा-बड़ा। सब एक झुण्ड में गंगाजी, नदी, स्थानीय जलाशयों में जल में खड़े होकर समभाव से सूर्य की उपासना-आराधना करते हैं। अपने परिवार, समाज, देश की सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए एक लम्बी अवधि के लिए निर्जला रहकर इस कठिन व्रत को करते हैं।

इस पर्व का अनुष्ठान कठोर है एवं इसमें शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है। दिवाली के बाद से ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती है। घरों की साफ-सफाई का अधिकांश काम तो दिपावली की तैयारी में पूरी हो जाती है। परन्तु उसके बाद जहाँ से भी घाट तक रास्ता होता है, उस गली-सड़क तक साफ-सफाई का विशेष प्रबंध किया जाता है। जहाँ भी अर्घ्य दिया जाता है उस नदी, गंगा घाट हो या स्थानीय जलाशय सभी स्थान की सफाई और मरम्मत पहले से ही कर दी जाती है। ताकि व्रती-परवैतिन और वहाँ उपस्थित श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो। इसका आरंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है और सप्तमी को इसका अंतिम दिन होता है। आमतौर पर महिलायें ही इस व्रत को करती हैं। किन्तु बड़ी संख्या में पुरूष भी इस व्रत का पालन करने लगे हैं।

कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को व्रत का पहला दिन ‘नहाय खाय’ से शुरू होता है। जहाँ गंगा नदी पास हो वहाँ व्रती गंगा स्नान कर शुद्ध भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरूआत करते हैं। जहाँ गंगा नदी पास नहीं बहती है वहाँ के लोग पानी में गंगाजल डालकर स्नान कर पवित्र होते हैं। इस दिन कद्दू, लौकी की सब्जी, चने की दाल और अरवा चावल के भोजन का विधान है। घर के सभी सदस्य व्रती के खाने के उपरान्त ही खाते हैं।

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अगली कड़ी में- ‘खरना’

और आखरी में- ‘सुबह-शाम का अर्ध्य’

©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली

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