मध्य प्रदेश

हर्षोल्लास से शुरू हुआ मध्यप्रदेश के भील, बारेला, भिलाला आदिवासियों का अनोखा त्यौहार ‘दिवावी’….

भोपाल। मध्यप्रदेश में आदिवासी (भील, बारेला, भिलाला) समाज में दीवावली (दिपावी) एक अनोखा त्यौहार है। आदिवासी समाज में दिवावी का सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है। आदिवासियों की दिवावी कैलेंडर के अनुसार नहीं होती है। सभी आदिवासी गांव में एक ही दिन भी नहीं होती, अलग-अलग गांव में अलग-अलग दिन मनाई जाती है दिवावी। दिवावी का दिन तय करने के लिए गांव के मुखिया पटेल, गांव डाहला, बड़वा, पुजारा, वारती, कुटवाव आदि प्रमुख लोग आदिवासी गांव के देव (बापदेव) के यहां एकत्रित होते हैं और आपस में विचार-विमर्श करते हैं कि गांव में कुछ मुख्य कार्य या किसी की मृत्यु के बाद बारवां या अन्य कुछ कार्य तो नहीं है। अगर है तो किस दिन है। यदि गांव में बारवां या अन्य दुःख का कार्य है तो गांव में दिवावी उस कार्य को होने के बाद में ही रखते हैं, उससे पहले नहीं। दिवावी का दिन तय तो कर लिया जाता है, पर सब कार्य होने के बाद में ही दिवावी मनाई जाती है।

दिवावी का दिन तय करने को आदिवासी समुदाय में ‘दिवावी टाकना’ कहते हैं। दिवावी का दिन तय होने के बाद कुटवाव गांव के हर घर जाकर दिवावी का दिन बताता है। उसके बाद में गांव वाले अपने-अपने रिश्तेदारों के घर जाकर दिवावी का नेवता देते हैं। आदिवासी में दिवावी से पहले चौवदेश मनाते हैं, जिसमे कुर्चली वृक्ष की लंबी लकड़ी को लाकर घर व बाड़े (पशु बांधने का स्थान) के दरवाज़े पर रख देते हैं और बैर के दातुन को मटके में रख देते हैं। सुबह उस दातुन को करते हैं और चावल बनाकर खाते हैं। यह आदिवासी के अपने क्षेत्र के अनुसार और गोत्र के अनुसार होता है, इसलिए यह परंपरा कुछ स्थानों पर अलग तरह से भी होती है। दिवावी के पहले दिन को ‘घर’ कहते हैं। इसमें घर की साफ़-सफ़ाई और गोबर से घर के कमरों- ऊटला की लिपाई की जाती है। दिवावी के दिन पशुओं को नहलाते हैं।

घर की लिपाई-पुताई के बाद दिवावी के दिन चावल का पकवान बनाते हैं। उसके बाद घर के बड़े व्यक्ति द्वारा उस चावल से बने पकवान को अपनी कुल देवी और देवता को अपनी संस्कृति के अनुसार भोग लगाते हैं। कुछ स्थानों पर दारू की धार से भी भोग लगाने की परंपरा है। अपने पुरखों का नाम लेकर घर के ऊपर भी भोग लगाते हैं। आदिवासियों की यह बहुत ही अनोखी परंपरा है, जिसे शब्दों में पूरी तरह से बया नहीं की जा सकती। इसमें घर के बाहर खत्रीस (पितृ भोग) करते हैं, जहां पर पूर्वजों का नाम लेकर चावल के पकवान का भोग लगाकर, दारू की धार लगाई जाती है और मुर्गा काटा जाता है। बाद में वह चावल से बने पकवान को परिवार वाले और जो भी मेहमान आए होते हैं, खाते हैं और पीने वाले दारू भी पीते हैं। फिर रात में गांव वाले एक जगह इकट्ठे होकर ढोल बजाकर नाचते हैं। पुरी रात युवक-युवतियां, बड़े बच्चे सभी ढोल, मादल की थाप और बांसुरी की धुन पर जमकर नाचते हैं। आस-पड़ोस के गांवों से भी टोलियां ढोल लेकर आती हैं और सभी साथ में नाचते हैं।

दिवावी के अगले दिन मुख्य त्यौहार होता है। उसे बैल का त्यौहार कहा जाता है। इस दिन आदिवासी अपने बैलों को बहुत ही सुन्दर तरह से सजाते हैं और उनके गले में घंटी और घुंगरू भी बांधते हैं। बैल के शरीर पर अलग-अलग तरह से चित्र व नाम लिखते हैं और अनेक प्रकार की कलाकृति बनाते हैं और पूजा करते हैं। गांव का पुजारा घर-घर जाकर बाड़े (पशु बांधने का स्थान) और बैलों की पूजा करता है। अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार अलग-अलग क्षेत्र में यह परंपरा कुछ अलग-अलग तरह से भी की जाती है। इसमें बैल की दाण की पूजा होती है। दाण बाजरा  व चवले की दाल आदि से बनाया गया पकवान होता है, जिसे एक सूपड़े में रखकर पूजा जाता है। सूपड़े में दाण के साथ चांदी के आभूषण और सिक्के भी रखे जाते हैं। पूजा होने के बाद में बैल को दाण खिला देते हैं और दारू भी पिलाते हैं। उसके बाद खूटे की पूजा होती है जहां पर ढाबा घूड़ा की पूजा करते हैं। उसके बाद में गांव के सभी बैलों को डोरगुवे की जगह (गोवाल देव) इकठ्ठा करते हैं। वहां भी पूजा करते हैं और फिर बैल को दौड़ाते हैं और पटाखे फोड़ते हैं या गारी को ठोकते हैं। मुर्गे भी काटते हैं। यह नज़ारा बहुत ही सुंदर होता है, जहां पर हर एक बैल सजा हुआ होता है । इसमें आदिवासियों में हर्षोल्लास और त्यौहार की खुशी देखते ही बनती है।

विस्थापन का दंश झेलने के बाद नई बसाहट में भी उत्साह के साथ निभा रहे परम्परा

मध्यप्रदेश के सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के जंगल में दीपावली की अलग परंपरा है। हालांकि, टाइगर रिजर्व के जंगलों में बसे गांवों में ग्रामीणों को विस्थापित कर नई जगह बसाया गया है। विस्थापन का दंश झेलने के बाद कई समस्याओं से जूझ रहे ये ग्रामीण नई बसाहट में भी अपने रीति-रिवाज और परंपराओं का निर्वहन कर रहे हैं। परंपरानुसार नई बसाहटों और गांवों में अमावस से पूर्णिमा तक 15 दिन तक रोजाना दीपावली मनाई जाती है। हर दिन एक गांव में मेला लगता है,  जहां आसपास गांव के लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। इस दिन कोई भी काम पर नहीं जाता, रातभर डंडा नाच और खाना-पीना चलता है। नर्मदापुरम जिले के विस्थापित गांव बागरा तवा और तीखड़ जमानी के आदिवासी परिवारों में विस्थापित होने के बाद भी दीपावली उत्सव मनाने के ढंग में परिवर्तन नहीं हुआ है। हालांकि विस्थापन से पहले उनके गांव में बिजली सप्लाई नहीं थी, तब घरों में रोशनी केवल दीपकों से ही की जाती थी, लेकिन पहले की तरह ही अब भी दीपावली उत्सव अमावस्या से शुरू होता है, जो लगातार 15 दिनों बाद तक चलता है। अपने घरों की साफ-सफाई कर सजावट शुरू कर करने के साथ ही परंपरागत पहनावे की खरीदी भी शुरू कर दी है। इन 15 दिनों में रोज अलग-अलग गांव में मेला लगता है, जिसे गुठान कहा जाता है। इसमें आदिवासी वाद्य यंत्रों के साथ डंडा नाच होता है। महिलाएं 16 हाथ की साड़ी पहनकर तैयार होती हैं, भोजन पकाती हैं, गांव के लोग एक-दूसरे को अपने गांव में आमंत्रित करते हैं, जो गुठान वाले दिन पहुंचकर उत्सव में शामिल होते हैं।

मध्यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, खरगौन, धार, मण्डला, सिवनी, छिंदवाड़ा, बालाघाट, डिण्डौरी, नर्मदापुरम (अब होशंगाबाद), बैतूल,  शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जैसे आदिवासी जिलों में इस समय आदिवासी समाज में दीवाली पर्व का उल्लास छाया हुआ है। खण्डवा, श्योपुर, रतलाम और सीधी जिलों में भी आदिवासी समाज में हर्षोल्लास देखते ही बन रहा है।

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