शाम और सुबह का अर्घ्य
छठ पर्व का समापन
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सुबह से ही इस पर्व के प्रसाद के रूप में बनाया जाने वाले ‘ठेकुआ’बनाने की तैयारी शुरू हो जाती है। ‘ठेकुआ’ बनाने के लिए गेहूँ को घर में धोकर सुखाया, पीसा जाता है। सुखाते समय एक व्यक्ति का वहाँ पहरा देना भी जरूरी होता है, कहीं कोई पक्षी इसे झूठा न कर दे। पहले महिलायें इसे घर की चक्की में गीत गाते हुए स्वयं पीसती थीं। परन्तु अब हर जगह मशीन को ही धोकर व्रत का गेहूँ एकसाथ पीसा जाता है। इसके बनाने की विधि भी ‘खरना’ के खीर की भाँति अलग है। इसे गुड़ और घी में बनाया जाता है। इसके अलावा कच्चे चावल को धो-पीसकर, गुड़ मिलाकर लड्डू बनाया जाता है, इसे ‘कचमनियाँ’ कहते हैं। इस ऋतु में पाये जाने वाले सभी फल को अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार लाकर अच्छे से धोकर प्रसाद के रूप में शामिल किया जाता है। इन सभी प्रसाद को कच्चे बाँस से बने सूप में सजाकर इन सूपों को कच्चे बाँस की ही एक बड़ी टोकरी में रखकर छठव्रति अपने पूरे परिवार और पड़ोस के सभी व्रती के साथ सामूहिक रूप से घाट की ओर चल पड़ते हैं। प्रसाद से भरे डाला, टोकरी सिर पर लिए पुरूष, रास्ते पर ‘छठ गीत’ गातीं महिलायें और खुश होते साथ चलते बच्चे, यह सब कुछ घंटे मेले जैसा दृश्य लगता है। व्रती जल में खड़े होकर फल से भरे सूप हाथ में लेकर सूर्य की उपासने करते हैं और परिवार के लेाग जल-गंगाजल लोटे में भरकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। शाम की पूजा यहीं पूर्ण नहीं होती है। इसके बाद ‘कोसी’ भरना एक ऐसी परम्परा है जो घर में यदि कोई पहली बार यह व्रत कर रहा हो तो किया जाता है या घर में शादी-ब्याह जैसा शुभ कार्य हुआ हो तब। एक लाल कपड़े में थोड़ा-थोड़ा सभी प्रसाद रखकर पोटली बना ली जाती है। उसी पोटली से पाँच-सात गन्ने को बाँधकर खड़ा कर दिया जाता है और उसके बीच में मिट्टी के बने हाथी पर दीप जलाकर रखा जाता है। घर के सभी सदस्य माथा टेकते हैं और वहीं बैठकर सभी लोग छठगीत गाते हैं, प्रार्थना करते हैं, जागरण करते हैं।
चौथे दिन सप्तमी को सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती और पूरा परिवार पुनः उसी स्थान पर इकट्ठे होकर सूर्य उपासना कर अर्घ्य देते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था। सुबह का अर्घ्य गाय का दूध और गंगाजल से दिया जाता है। व्रती उसके बाद वापस आकर गांव के पीपल पेड़ जिसे ‘ब्रहम बाबा’ कहा जाता है और घर की तुलसी में जल अर्पित करने के बाद सभी उपस्थित जनों में प्रसाद वितरण करने के पश्चात अपना व्रत प्रसाद खाकर पूर्ण करते हैं जिसे ‘पारण’ या ‘परना’ कहते हैं। ‘परवैतिन’ महिलाओं को नाक से लेकर माँग तक सिंदूर लगाकर आँचल में प्रसाद देकर भरे-पूरे रहने का आशीर्वाद देतीं हैं और पुरूषों-बच्चों को माथे पर टीका कर, प्रसाद देकर आशीर्वाद देतीं हैं।
बहुत से व्रती आजकल अपने आँगन या द्वार पर ही गड्ढा कर कुण्ड बनाकर, उसमें पानी भरकर गंगाजल डालकर घाट बना लेते हैं। इसी तरह छत पर भी ईटों से घेरा बनाकर घाट को निर्मित कर लिया जाता है। यहाँ मुख्य है अस्तलागामी सूर्य और उदयाचल सूर्य का दिखना और उन्हें अर्घ्य देना।
‘काँच ही बाँस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाय।’
‘छठ पूजा’ का एक महत्वपूर्ण पक्ष है इसमें विभिन्न अवसरों पर सुमधुर और भक्तिभाव से गाये जाने वाला लोकगीत। जैसे-प्रसाद बनाते समय, ‘खरना’ के समय, ‘अर्घ्य’ देते हुए, घर से घाट जाते समय और घाट से घर लोटते हुए, ‘कोसी भरने के पश्चात रातभर गीत गाते हुए जागरण करते समय।
इस पूजा में कच्चे बाँस से बने सूप और डाला ‘टोकरी’ का ही प्रयोग किया जाता है। इनके स्थान पर आजकल पीतल से बने सूपों को प्रयोग में लाया जाने लगा है- जिस पर भगवान सूर्य की आकृति बनी होती है।
‘केलवा जे फरे ला घवद से, ओह पर सुगा
मेड़राय ….. सुगा देले जुठियाय।’
इस पर्व में ऋतु फलों को प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। अतः फल जब पकने लगता है तो उसकी रखवाली भी की जाती है कि पशु-पक्षी उसे कहीं जूठा न कर दें। उसी का चित्रण इस लोकगीत में है। तोता केले के घौंद को जूठा कर देता है, व्रती के मारने से वह मूर्च्छित हो गिर जाता है और सुग्गी, उसकी पत्नी भी अपने सुग्गे की रक्षा के लिए ‘आदित्य’ के ही शरण में जाती है- आराधना करती है-
‘आदित होखी न सहाय’
लोकगीत हमारे समाज के मानसिकता को द्योतक होते हैं –
‘‘पाँच पुतर छठी से माँगव
धियवा माँगवों जरूर।’’
पुत्र की इच्छा तो समाज में सदियों से सर्वोपरि है पर यहाँ ‘जरूर’ कहकर बेटी की जो कामना की गई है वह अनन्य है।
‘रूनकी, झुनुकी हम बेटी माँगीला
पढ़ल पंडितवा दामाद हे छठि मईया
सुन लीं अरजिया हमार।’
पूरे परिवार के लिए सुख समृद्धि की चाह इन गीतों की आत्मा है और इन गीतों की गायिका के रूप में शारदा सिन्हा का नाम पानी में चीनी तरह घुला हुआ है। बिहार में ‘छठ’ गीत मतलब शारदा सिन्हा द्वारा गाए गीत। ‘छठगीत’ और शारदा एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। अब तो बहुत से गायक-गायिका का नाम इन गीतों से जुड़ गया है।
प्राकृतिक चीजों का भरपूर प्रयोग इस पर्व की एक और विशेषता है। कच्चे बाँस से बने सूप-डलिया, मिट्टी से बने हाथी-दीप और इस समय जितने भी प्रकार में फल उपलब्ध होते हैं सभी का अपने सामर्थ्य के अनुसार व्रती प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। इस समय कार्तिक मास में काले रंग का धन होता है जिसे ‘साठी’ कहते हैं, उसका चावल लाल रंग का होता है, इस चावल को ‘अक्षत’ के रूप में चढ़ाया जाता है। शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा लोकरंग में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है जो किसान और ग्रामीण जीवन से जुड़ा हुआ है। इस उत्सव के लिए लोग स्वयं अपने सामूहिक सहयोग से तैयारी करते हैं। आस-पड़ोस के लोग अपनी सेवा देने के लिए सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक भक्तिभाव से तैयार रहते हैं। अब तो प्रशासन द्वारा भी इस पर्व की तैयारी पूरी सजगता से साथ की जाती है।
‘छठ’ पूजा बिहारवासियों की पहचान है। इस पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और इसका लोकपक्ष है। चार दिनों तक चलने वाला इस पर्व में श्रद्धालु भगवान सूर्य की उपासना-आराध्ना कर वर्षभर सुखी, स्वस्थ और संपन्न जीवन की कामना करते हैं।