लेखक की कलम से
तुम्हें मालूम……..
ग़ज़ल
तुम्हें मालूम ही कब है, हक़ीक़त जिंदगानी की,
न इस ठहरे हुए जल की, न मौजों की रवानी की।
नहीं अहसास था, ऐसे भयानक अंत का शायद,
लिखी जी जान से थी, पटकथा मैंने कहानी की।
यदि हम बात को, आसान शब्दों में ही कह डाले,
ज़रूरत किसलिये होगी, हमें फिर तर्जुमानी की।
अड़े हो ज़िद पे तुम तो बात पर, मैं भी हूँ क़ायम,
बताओ होगी कैसे दोस्ती, फिर आग-पानी की।
ख़ता तेरी को हमने, हर दफ़ा ही माफ़ कर डाला,
सज़ा हमको मिली हरबार, अपनी मेहरबानी की।
नज़र रखना ज़रा इस पर, चमन को देखने वालों,
खिजाँ ले जाये न ख़ुशबू, कहीं इस रातरानी की।
पटक तुमने दिया लाकर, कहाँ सुनसान सहरा में,
लिखी है, रेत पर ही दास्ताँ, बस प्यास-पानी की।
©कृष्ण बक्षी