लेखक की कलम से

हम मन देस जाबो …

आदिवासी जीवन को बचपन से ही करीब से देखा है और घर पर काम करने वाली आदिवासी औरतों के मुंह से हमेशा यही कहते सुना है हम मन देस जाबो। तब मुझे इस वाक्य की गहराई का अंदाजा नहीं था मैं उनसे कहती की तुम सब तो भारतवासी हो और ये अपना देश है। वो कहतीं नहीं .. हम मन तो ऐती बुता करथो.. हम तो यहां काम करते हैं।

वो अपनी कर्मभूमि को लेकर किसी तरह भ्रम में नहीं थे। दूसरी बात मैं उनसे ऐतराज करती कि वो खाना हमेशा उकडू बैठकर ही क्यों खाते हैं मैं कहती तुम भात तो आराम से पालथी मार कर क्यों नहीं खातीं।

उस पर वो मुस्करा कर दीवार की तरफ मुंह फेर लेतीं। वो ऐसा क्यों करतीं ये सवाल हमेशा उठता जवाब अब मिला। आज जब पलायन की कई तस्वीरों में मजदूर ऐसे ही खाते दिख रहे तो पता चला कि असल में ऐसा इसलिए करते थे कि वो पलायन के लिए हमेशा सजग हैं और वो किसी के मुगालते में नहीं हैं खाना खाते वक्त भी।

महामारी एक प्राकृतिक आपदा है परंतु उसके नियंत्रण में होने वाली गड़बड़ियां मनुष्य द्वारा की गयी आपदा है। मजदूरों का पलायन इतने संवेदनहीन तरीके से हो रहा है। यह प्रक्रिया इतनी दर्दनाक होगी ये सोचा नहीं था। सवाल तो अभी सत्ता में बैठे लोगों से पूछा जायेगा, जवाबदेही भी उनकी ही तय होगी, कम से कम मजदूरों द्वारा बनाये गये पक्के मकानों में रहने वाले हम लोग इतना तो कर ही सकते हैं।

©वैशाली सोनवलकर, मुंबई

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