लेखक की कलम से

प्रकृति के आगे मनुष्य को झुकना होगा …

मनुष्य अपने आप को चाहे जितना भी अपराजेय समझे। जब आपदा सामने आती है, तो वह उसके आगे बौना ही दिखाई देता है। इस समय मनुष्य चाहे जिस ईश्वर को पुकारे आपदा वाले ईश्वर हर पुकार को अनसुना कर देते हैं। क्योंकि आपदा वाले ईश्वर किसी एक जाति विशेष मजहब से बंधे नहीं होते हैं।

आपदा न किसी धर्म का लिहाज करती है, ना किसी मजहब का, ना किसी विशेष जाति का आपदा यह नहीं देखती है, कौन हिंदू है, कौन मुस्लिम कौन, कौन ईसाई है, कौन सिख। इन सब से जो हटकर है वह पूंजीपतियों और गरीबों के बीच का अंतर भी नहीं समझती है। इन सब को एक एक ही झटके में सबको सबकी औकात बता देती हैं।

आज मनुष्य अपनी सरला के लिए नये नये प्रयोग करते रहते है, जिस से प्रकृति को ही नही साथ मनुष्य, पशु, पक्षियों को भी नुकसान होता है। प्रकृति भी समय समय पर अपने बदले पूरी करती रहती है।

प्रकृति सरल और सहेज होती है इस लिए हमे बीच बीच में सोचने का मौका देती रहती है। लेकिन मनुष्य अब इसका आदी हो चुका है लेकिन जो इस बार उसने मनुष्य को बड़ी चेतावनी दी है ये बहुत ही हैरान करने वाली है।

प्रकृति के इस बिगड़ैले रूप से आज मनुष्य के सामने कई समस्या आ गयी आर्थिक, राजनीति, सामाजिक, शैक्षणिक, भुखमरी जैसे समस्या पैर पसारे खड़ी हुई है।

मनुष्य जिस करिश्माई प्रौद्योगिक शक्तियों का गुमान कर रहा था इस आपदा प्रकोप के आगे असहाय महसूस कर रहा है। प्रकृति में एक बात जरूर है कि आपदाएं हमें अपनी सारी क्षुद्रताओं से ऊपर उठा देती हैं। आपदाग्रस्त मनुष्य के प्रति सहानुभूति से भर देती हैं।

हमें उनकी सहायता के लिए प्रेरित करती हैं उनके साथ खड़ा होने को बाध्य करती हैं। हमें हमारे सारे मतभेद को, सारी कटुताओं को, सारी शत्रुताओ को भुलाकर एक उदार इंसान बना देती हैं।

लेकिन इस बार प्रकृति इसे भी भुला दिया है और एक दूसरे के बीच में काफी फासले ला दिया है। आखिर प्रकृति भी तो मजबूर हो चुकी है। हमे प्रकृति को गलत नही ठहराना चाहिए। हमे अब वो समय आ गया है जब सभी मनुष्य, विश्व के सभी देशों को एक जुट हो कर प्रकृति के अनुरूप खुद को विकसित करने पर विचार करना चाहिए।

जैसे-जैसे प्रकृति के बीच मनुष्य का हस्तक्षेप बढ़ता है वैसे वैसे प्रकृति अधिक उग्र, आक्रमक और विनाशक रूप लेती है। मनुष्य निर्मित सारी व्यवस्था को तहस-नहस कर देती हैं कर देती हैं। इन आपदाओं का सबक है कि हम प्रकृति के साथ आत्मघाती छेड़छाड़ ना करें उसका सम्मान करें और उसे नष्ट करके नहीं बल्कि उसके साथ संतुलन बिठाकर अपना विकास करें।

प्रकृति ने हमे पहले से इतना दे रखा है की अपने जीवन को सुचारु रूप से जीने के लिए आजीवन उपयोग करेंगे तो भी नही ख़त्म होने वाला है। लेकिन प्रकृति मनुष्य की लालसा को कभी नही पूरी कर सकती है। जैसे एक बार गांधी जी ने कहाँ था की “पृथ्वी, सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है किन्तु उनके लालच की पूर्ति के लिये नही।”

लेकिन सच तो यह है इंसान लालसा में आकर गलती कर रहा है, गलती तो करता है लेकिन उसे मानता नहीं, उसे अपनी गलती पर पछतावा भी नहीं होताहै। इंसान तो है इसने पहाड़ों को छेद कर सुरंगे बनाएं, जगह काट दिया, नदियों के रास्ते मोड़ दिए, गंगा का पानी पीने लायक नहीं छोड़ा। धरती पर बेतरतीब इमारतें खड़ी कर दी अब क्या करता मनुष्य उसे जो अपने को सबसे महानतम साबित था। उसके लिए मनुष्य ने प्रकृति से खिलवाड़ किया प्रकृति को लूटा, अतिक्रमण किया नदियों, पहाड़ों, जंगलों पर बड़ी बेहरमी से जुल्म किया। मनुष्य ने सोचा तक नही कि मानो मनमानी को कोई देख तो नहीं रहा है।

प्रकृति से हम नही डरते, यही मनुष्य की सबसे भूल थी। लेकिन प्रकृति सब कुछ चुपके से देख रही थी, आज मनुष्य को अपनी ताकत का अंदाजा लगा लेना चाहिए ये सोच लेना चाहिए प्रकृति के आगे हमे झुकना होगा एक रक्षक के रूप में भक्षक के रूप में नही। आज मनुष्य के पास सब कुछ होते हुए भी प्रकृति के आगे मनुष्य नेस्तानबूत है। मनुष्य द्वारा निर्मित चीजे मनुष्य को एक दूसरे से अलग थलग कर सकती है,लेकिन प्रकृति ऐसा कभी नही करती है। प्रकृति हमे इंसानियत का पाठ पढ़ाती है, मनुष्य का विस्तार करती है, ये हमे एक दूसरे के करीब लाती है और जानने पहिचान का मौका देती है।

इस लिए मनुष्य का परम् कर्तब्य है कि प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को और मजबूत करे और एक दूसरे के साथ ताल में ताल मिलाकर विकास की राह पर चले।

©अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

Back to top button