लेखक की कलम से

समझना होगा संकेत प्रकृति के …

प्रकृति में कुछ ऐसे पेड़-पौधे भी होते हैं, जो अपनी सीमा में अपने से छोटे-छोटे पौधों को पनपने नहीं देते हैं। जंगलों में ऐसे ही कुछ हिंसक प्रजाति के जीव-जंतु भी होते हैं जो छोटे-छोटे जंतुओं को अपना भोजन बना लेते हैं। अफ्रीका के जंगल में कुछ पौधे ऐसे धोखेबाज होते हैं जो रंग-बिरंगी भोली-भाली पक्षियां उनके पास आश्रय के लिए आतीं हैं और वह दानों रूपी पौधे अपने नुकीले पत्तों से उसे जकड़ कर उसका खून पी लेते हैं।

इसी प्रकार से समुद्रों में एक-दो मछलियां, एक-दो जंतु जैसे मगर और घड़ियाल ऐसे भी होते हैं जो किसी को पनपता देख नहीं सकते हैं। अपने से कम शक्ति का जो भी दांत में आ गया उसी को चट कर जाते है। ऐसा नहीं है कि ये सब सिर्फ जंतुओं, पेड़-पौधों में देखने को मिलता है, इन सब से कहीं ज्यादा मनुष्य में देखने को मिलता है।

मालिक अपने नौकर का, बड़े व्यापारी छोटे व्यापारी का, अब तो हद ही हो गई है ये सब धर्म, जाति में भी देखा जाता है। एक दूसरे को चट जाने का होड़ सा लग गया है। इस विविधता विपुलता प्रकृति में ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति के जीव-जंतुओं की संख्या बहुत कम है, पर मनुष्य जाति के दृष्टि दोष को क्या कहा जाए जिसने इन दो, चार उदाहरणों को लेकर उपयोगितावाद जैसे मूर्खता पूर्ण सिद्धांत ही तैयार कर लिया। खोजें तो पाते हैं अधिकांश संसार आज “आओ हम सब मिलकर जिएं” के सिद्धांत पर फल-फूल रहे हैं।

यदि मारकर खा जाने वाली बात ही सत्य होती तो, कुछ शताब्दियों में विश्व की आबादी दोगुनी से भी अधिक ना हो पाती होती। इस प्रसंग में यह बताने का प्रयास है कि संसार के बुद्धिमान ना समझे जाने वाले जीव-जंतु ही परस्पर मिलकर कल्याणकारक मानते हैं।

जंगल की नदियों में रेडियश नामक एक मछली पाई जाती है, साथ ही सीप नामक एक जीव भी पाया जाता है। सीप के शरीर में कछुए की तरह एक मोटा और कड़ा आवरण घेरकर रखता है। जिससे वह अपने अंडे की सेवा नहीं कर सकता है ऐसी स्थिति में रेडियश मछली और सीप ये दोनों मिलकर “जिएं और जीने दे” के अनुसार समझौता कर लेते हैं।

रेडियश अपने अंडे सीप के खोल में प्रविष्ट कर देती है, इसी समय सीप अंडे देती है और उस अंडे को रेडियश अपने शरीर में चिपका लेती है।

रेडियश घूम-घूमकर अपने लिए भोजन इकट्ठा करती है। उसी के दाने -चारे पर सीप के बच्चे फलते-फूलते हैं, जबकि उसके अपने बच्चों को सीप पालती है। आज हमें सीप और रेडियश जैसे व्यवहार की जरूरत है। ताकि बड़े से बड़े महामारियों का आसानी से सामना किया जा सके। विभिन्न जातियों में सहयोग और संगठन की आचार संहिता से लगता है, भारतीय समाज शास्त्रियों ने प्रकृति की इस अमुख भाषा को पढ़कर ही तैयार किया था, और इसी सिद्धांत पर चलकर पूरा संसार सुखी रह सकता है। हमें आज प्रकृति के साथ सहयोग और उसके साथ चलने की जरूरत है। तभी जिएं और जीने दे की परिकल्पना सही साबित होगी।

©अजय प्रताप तिवारी चंचल, इलाहाबाद

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