लेखक की कलम से
आज की स्थिति …
समय की वास्तविकता पर
विवशता मूक पराधीन खड़ी
आक्रोश का आक्रमण दर्शाता कहाँ पर
अब नैतिकता,अनैतिकता में संधि हुई |
आन्तरिक उल्लास,बहता रहता था
सुख की ये परिभाषाएं थीं
समय की रेत में समा रहीं हैं
अब वो नदियाँ क्यूँ सूख रहीं |
हिम,हिमानी बरसातें होतीं थीं
कोमल तन लिए,धूप खड़ी थीं
वर्तमान का सत्य यही है
मौसम भी कर रहा बेईमानी |
प्रकृति की आकृति में समाहित
सम्पूर्ण सामाजिक स्थिति थी
पर्व, त्यौहारों के मेले थे
वो संस्कृति हमारी कहाँ छूट गई ||
©इली मिश्रा, नई दिल्ली