मुर्ग़े की बाँग …
आज कल
गुड मॉरनिग मैसेज
ही बन गया है मुर्ग़े की बाँग
अगर दो दिन ना मिले यह
मैसेज
उस बॉग रूपी
अलार्म का
घन्टा बजता है
कहीं कुछ अनहोनी तो
नहीं हो गई ?
ऐसा ख़याल दिल में
आता है
फ़ोन करने की ज़हमत की
तो पता चलता है कि फ़लां
तो अस्पताल में है भर्ती
कमाल तो यह है कि
उस तरफ़ से भी
ख़बर नहीं कोई आई
बेकार में तकलीफ़ क्या देना
कहकर बतलाया जाता है अहसास करवा दिया
जाता है
कि
हम भी अकेले है
तुम भी अकेले हो
इस दुनिया में अकेले ही आए थे और अकेले ही
जाना है
जितनी जल्दी इस फ़िलासफ़ी को समझ
पाएँगे तो अच्छा होगा
वरना जीवन के चक्र व्यूह
में ही फँस कर रह जाएँगे
ऐसा लगने लगा है कि
मैट्रो स्टेशन के
चैक पॉइंट
को आजकल
ज़्यादा पता है कि
हम या आप
गए या आए
सब व्यस्त है अपनी बनाईं दुनिया में
क्योंकि
हम आज कल रहने लगे हैं
उन मकानों में
जिनके मुख्य द्वार होते हैं
एक ही पल्ले के
साझा करने वाला
नहीं है साथ दूसरा पल्ला
चारों तरफ़ बस गगनचुंबी
इमारतें हैं ।
वहाँ भी समाज नहीं चूकता
अहसास करवाने में
जितना ज़िन्दगी में
ऊँचे उठोगे लोग ख़ुद ही
किसी बहाने से तुम्हें दोष देकर अलग कर देंगे
या हम स्वयं सभी के कटाक्षों
से बचने के लिए उनसे अलग होना पसंद करते है ।
सब अकेले ही है
आत्मनिर्भर है
होना भी चाहिए
पर किस क़ीमत पर
यह ज़रूर विचार
करना चाहिए ।
काश वो मुर्ग़ा
फिर से ज़िन्दा हो जाए
और इस टेक्नॉलजी ने
जो रिश्ते
दफ़ना दिए हैं
शायद
फिर से जीवित हो जाए ॥
और मुर्ग़े की कुकडूंकू बॉग
वाली सुबह
हर रोज़ सुनाई दे ॥
©सावित्री चौधरी, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश