लेखक की कलम से

मुझे अनपढ़ ही रहने दो …

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फअनपढ़ ही रहने दो।

हाय-हलो कह नहीं सकता,

मुझे राम -राम ही कहने दो।।

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

माथे से तिलक हटा नहीं सकता,

उसे माथे में ही रहने दो।।

 

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

झूठा कसम खा नहीं सकता,

मुझे यूँ ही सहज रहने दो।।

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फअनपढ़ ही रहने दो।

कम कपड़े में निभा नहीं सकता,

मुझे सिर्फ धोती में रहने दो।।

 

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

मैं बफे उड़ा नहीं सकता,

मुझे पंगत में ही रहने दो।।

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

निज धर्म त्याग नही सकता,

मुझे जनेउ के संग रहने दो।।

 

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

मैं संस्कृति छोड़ नहीं सकता,

मुझे यूँ प्रकृति में रहने दो।।

अगर अनपढ़ कहलाने में दाग है,

तो दाग बहुत अच्छे हैं।

साहब मैं अनपढ़ ही सही,

पर दिल के बड़े सच्चे हैं।।

 

मन में संतोष होता है कि,

मैंने न बुरा काम किया।

आते-जाते लोगों को,

सुबह-शाम राम-राम किया।।

मैं अनपढ़ हूँ साहब,

मुझे सिर्फ अनपढ़ ही रहने दो।

जीवन कटे फकीरी में,

और मस्त नदी सी बहने दो।।

 

-श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद

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