सुनो … !
ओ मेरे जन्मों के साथी
छात्र जीवन में
बड़े ध्यान से पढ़ा था अर्थशास्त्र
पर निजी जीवन में
कभी उसे साध न पाई
एक अर्थ का बोध
सदा ही हावी रहा शास्त्र पर
और परिणाम में आज भी अंकित है
मेरी स्नातक प्रथम वर्ष की अंकतालिका में
कृपा के दो अंक
जिनके सहारे उत्तीर्ण कल पाई थी मैं
स्नातक की परीक्षा।
जीवन में भी साधती रही
अर्थ के नियम शास्त्रानुसार
कभी संकुचित हुई
मुद्रा के संकुचन सी
कभी मुद्रास्फीति में परिवर्तित हुई
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम सी
घटती बढ़ती रही मेरी उपयोगिता
जीवन के शास्त्र में
राबर्टसन् के नियम से प्रभावित होकर
मैंने त्याग दिया स्वामिनी होने का विचार और बन गई अच्छी सेविका
बिलकुल मुद्रा के जैसी।
पर एक दिन ग्रेशम का नियम लागू हुआ
और मुझे चलन से
उसी तरह बाहर कर दिया गया
जैसे कर देती है बुरी मुद्रा
अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर,
सुनो!
आज भी मेरे जीवन का परीक्षा फल अटका है
नेह के दो कृपांकों पर
क्या तुम वो दो अंक
मुझे देकर
उत्तीर्ण लिख दोगे मेरे जीवन की अंकतालिका पर
बताओ लिख दोगे
लिख दोगे ना
उत्तीर्ण
मेरे जीवन की अंकतालिका पर ?????
©रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तरप्रदेश