लेखक की कलम से
दीप बन जलें स्वयं…
ये रात भी कट जाएगी।
ये धुंध भी छट जाएगी।
हारकर न बैठिए,
खीझकर न बैठिए।
बुरा जरूर वक्त है,
मिज़ाज तम का सख़्त है।
आश फिर जगाएगी।
जिंदगी सजाएगी।
नवीन पथ बनाना है।
श्रम को आजमाना है।
दीप बन जलें स्वयं,
ख़ुद को अब तपाना है।
व्यथा भी सिमट जाएगी
ये रात भी कट जाएगी।
विहग मुंडेर पर हैं आज,
फिर भरें गगन उड़ान।
नाप लेंगे हर दिशा,
यह जमीं और आसमान।
मुश्किलों की हर दीवार,
यकीन हट जाएगी।
ये रात भी कट जाएगी।
समुद्र सी अनंत है,
विपत्तियाँ दिगंत हैं।
न ओर छोर दिख रहा,
हर लहर स्वतंत्र है।
घमंड युक्त बात में।
उदंड घनी रात में।
विरोध के हैं स्वर मुखर,
दर्द की बारात में।
जब दृष्टि निकट जाएगी।
ये रात भी कट जाएगी।।
-अल्पना सिंह(कोलकाता), शिक्षिका,कवयित्री