लेखक की कलम से

अहसानों का गणित …

 

अहसानों का गणित भी

बड़ा अजीब है।

अक्सर लगता है

समझ के करीब है।

मगर ऐसा होता नहीं है।

समझ पाना आसां होता नहीं है।

एहसानों को घटाने की कोशिश में

ना जाने क्यों हो जाते हैं जमा।

घटाने की हर कोशिश का फल

हर बार रह जाता है बेनतीजा।

किश्त दर किश्त चुकाते रहो भले ही

अहसानों का बोझ कम नहीं होता।

कोई समीकरण काम नहीं आता।

शून्य पर इसे ला नहीं सकता।

ये कैसा कर्ज है

जो बहीखातों में निल नहीं होता।

उधारी बढ़ती ही चली जाती है

भले ही कोई बिल नहीं आता।

 

अहसानों का कोई

हिसाब भी नहीं होता।

डेबिट क्रेडिट का

कोई कॉलम भी नहीं होता।

बस अहसासों का आभास होता है।

लेन देन का रिश्ता कायम होता है।

तभी तो अहसान कभी चुकता नहीं है।

जब तक कोई जताए नहीं

ये चुभता नहीं है।

तो बात दूसरों के

रहमों करम पर है।

कब झुक जाए सिर अपना

ये अपने कंट्रोल में नहीं होता।

 

अहसान लेने की मजबूरी

आये कभी तो

इत्मीनान से सोचना।

लेने की मुद्रा में

बढ़ें हाथ अगर,

तो उन्हें रोकना।

ख़ुद से पूछना

कि क्या ये इतना जरूरी है?

क्या ख़ुद के हौंसले

इतने कमज़ोर पड़ गए हैं,

जो मदद मांगने के लिए

हाथ जुड़ गए हैं।

बस इतना सा याद रखना।

मुश्किलें आज आई हैं

तो कल चली जायेगी।

यादों से भी ओझल हो जाएंगी।

मगर अहसान कभी

मिटते नहीं हैं।

उनके काले साये

कभी छंटते नहीं हैं।

आत्मस्वाभिमान का

मान रखते नहीं हैं।

जीवन में बोझ बनते हैं।

कब्र तक पीछा करतें हैं।

 

बेहतर हो अगर अहसान लेने का

अंक शून्य ही रहे।

अहसान करने का अंक

भले ही ऊंचा रहे।

इस रहस्यमयी गणित से

जीवन बचा ही रहे।

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

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