लेखक की कलम से
उसका आना …
माह ,फूस की कंपकपाती सुबह जब वो अपना नरम-नरम गुनगुना सा स्पर्श ले कर आता है
तो आत्मा तक कंपकंपाते उन ठिठुरते इन्सानों को सबसे सगा होने का एहसास दिलाता है
उसकी ही सुनहरी किरणों के आगोश में ठिठुरा सहमा सा वो मासूम बचपन खिलखिलाता है
तमाम रात सूखे दरख्त सा अंतड़िया कंपकंपाता बाबा
फिर से थमी सी सांसे सहलाता है
उसका आना ऐसा लगता है
जैसे शाम ढले पिता के आते परिवार जैसे कोई खिलखिलाना है……
©अनुपम अहलावत, सेक्टर-48 नोएडा