लेखक की कलम से

आजादी की गुहार…

 

जब से आया हूँ यहाँ,

बस सुन ही रहा हूँ,

आपकी बातों से हँसता रोता रहा हूँ,

जो भी नाम आपने दिया,

उसे मुस्कुराकर मान लिया,

आपके कहने पर चलता रहा,

अँगुली पकड़कर घूमता रहा,

आपने जिसे भी जो भी कहा,

हमने उसे वही मान लिया,

किसी सीख पर प्रश्न न किया,

आपकी आँखों से सब देखता रहा,

 

पर अब मैं बड़ा हो गया हूँ,

थोड़ा सोचने भी लगा हूँ,

बहुत प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूँढ रहा,

खुद को खुद के भीतर खोज रहा;

अपने वजूद के सपने बुन रहा,

कल से आज तक आपकी सुनता रहा,

आज से अब खुद को सुनना है,

अपनी पनपती अरमानों को सिंचना है,

राह अपनी मुझे स्वयं तलाशना है,

सही गलत से अब अकेले ही जूझना है,

जो सीखा उसको अब अमल करना है;

 

आपने पैदा किया हमें

आपने रिश्तों से जोड़ा हमें,

आपने हर सुख सुविधा दी हमें,

आपका प्यार खूब मिला हमें,

हम आपके ऋणी ही रहेंगे,

पर आपसे कर जोड़ विनती है,

जो आप स्वयं न अर्जित कर सके,

उसे पाने का माध्यम न बनाये हमें,

अपनी दुनिया स्वयं सजाने की

खुले दिल से इजाजत दें हमें,

अपने पंख अब फैलाने दे हमें।

©अनुपम मिश्र, न्यू मुंबई

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