लेखक की कलम से

मध्यम वर्ग की चुनौतियां है तीन लहरें …

पुस्तक समीक्षा

तीन लहरें एक ऐसा तीन लंबी कहानियों का संग्रह है। जिसकी कहानियां पेंडुलम की तरह उच्च और निम्न वर्ग के मध्य लटकते मध्यम वर्ग की बात करता है तथा एक तरफ महानगरीय चमक दमक पर रीझते वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण परंपराओं में पैर उलझाए खड़े कस्बाई जीवन का सजीव चित्रण करता हैं।

हिंदी साहित्य लेखन जगत का एक पहलू यह भी है कि यहां आपको गरीब और सुविधा संपन्न परिवारों की जीवन शैली पर पढ़ने को खूब मिल जाएगा, परंतु इन दोनों के बीच का पुल कहे जाने वाले मध्यम वर्ग की चुनौतियों और रोजमर्रा के संघर्षों पर लिखा गया उंगलियों पर गिना जा सकता है।

लेखिका डॉ सोनी पांडेय अपने इस कहानी संग्रह में समाज के उसी वर्ग की स्त्रियों के संघर्षपूर्ण जीवन के जमा घटाव की बात करती हैं कि किस तरह जीवट से भरपूर मध्यम वर्गीय स्त्रियां आधुनिकता और पुरातन परंपराओं की पतली रस्सी पर संतुलन साधे दौड़ रही हैं ।

पुस्तक की शुरुआत आलोचक, कवि नलिन रंजन सिंह की सटीक व सधी हुई समीक्षा टिप्पणी से होती है, जिसे पढ़ते हुए कहानियों का बिम्ब, उद्देश्य और रूपरेखा पाठक के मानस पटल पर साफ उभर आती है। जब हम आधी आबादी की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो पहले पहल दिमाग में यही उपाय सूझता है कि स्त्री तभी स्वतंत्र हो सकती है जब वह आर्थिक रूप से सशक्त हो।

परंतु आर्थिक स्वतंत्रता की परिभाषा क्या है?

क्या मात्र नौकरी पा लेने से, या फिर कोई बिजनेस कर लेने भर से उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कहा जा सकता है?

सच्ची कविता झूठी कविता इसी विषय पर एक शोध कहानी का काम करती है। अनिता कमाती जरूर है परंतु क्या उसका नौकरी पेशा होना उसकी शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता के द्वार खोलता है।

सच्ची कविता झूठी कविता स्त्रियों को आगाह करती कहानी है । साथी से प्रेम करो, विश्वास करो, कंधे से कन्धा मिलाकर चलने वाली सहयोगी बनो…, परन्तु मत भूलो एक मनुष्य होने के नाते तुम्हारी एक अलग पहचान, अलग अस्तित्व भी है, अपनी नौकरी, अपना बैंक बैलेंस, अपने फैसले, अपनी सीमाएं तुम्हारे खुद के नियंत्रण में होना चाहिए। यह तुम्हारा अधिकार है। निकाल फेंको इस पूर्वधारणा को मन से बाहर कि स्त्रियां हिसाब किताब के मामले में कच्ची होती हैं।

जब तुम कमाना जानती हो तो यकीनन संभाल भी तुम्ही बेहतर सकती हो बरक्स किसी दूसरे के।

 

तीनों कहानियों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि बाजारवाद, बाजार से मोबाइल, मोबाइल से पॉकेट, पॉकेट से घर और घर से रिश्तों में घुस आया है। टूटते संबंधों की किरचे प्रेम और विश्वास को लहूलुहान कर रहीं हैं।

कहानियों में शामिल ग्रामीण लोक गीत, परंपराएं और सामाजिक ताना–बाना, वर्तमान देशी मिजाज से रूबरू कराते हैं। विधवा होने पर ग्रामीण अंचल में औरत के साथ किया जाने वाला अमानवीय बर्ताव इन पंक्तियों से बखूबी समझा जा सकता है।

“आज पापा का दसवां है….सुबह मां की मांग नाऊन संग घर की बेवा औरतों ने खली से रगड़–रगड़ कर धोया…. सिन्दूर की धुंधली आखिरी रेख भी आज धुलकर बह गई। दस दिनों से अन्न त्यागी जिन्दा लाश मां को घर की सारी सुहागनें छूने से डर रही थीं। उस दिन उसने कलकत्ते का सुहाग चटख लाल आलता लगाया था पैरों में। नाऊन जूट की रस्सियों से दादी के कहने पर रगड़ –रगड़ छुड़ा रही थी।”

जहां एक तरफ कहानियों में आकाश, रोहित और माधव जैसे स्त्री को महज मौज मस्ती का सामान और अपने इशारे पर नाचने वाली कठपुतली समझने वाले दोहरे चरित्र पुरुष किरदार हैं। तो वहीं दूसरी तरफ अवनीश लाल एडवोकेट, मनन और संजीव जैसे स्त्रीवादी मूल्यों के पैरोकार पुरुष भी हैं, जो इस बनी बनाई धारणा का खण्डन करने के लिए मजबूत आधार प्रस्तुत करते है कि सभी पुरुष एक जैसे ही होते हैं। (नकारात्मक दृष्टिकोण).

संग्रह की तीनों कहानियों में स्त्री वेदना का स्वर मुखर है किंतु उसका ठीकरा पूर्ण रूप से पुरुषों पर नहीं फोड़ा गया है लेखिका ने बड़ी सजगता से कहानियों पर पुरुष विरोधी टैग लगने से बचा लिया है। अच्छा होना या फिर बुरा होना मात्र एक मानव स्वभाव है जो स्त्री और पुरुष दोनों का ही हो सकता है। बस फर्क इतना है कि सामाजिक संरचना पुरुषवाद की तरफ झुकी होने के कारण पुरुष कुछ अधिक हावी है बरक्स स्त्रियों के।

अनिता के साथ जो कुछ भी बुरा घटित हुआ उसमें आकाश के साथ साथ अप्पी भी बराबर की भागीदार रही। सुजाता के साथ धोखे की आंख मिचौली खेलने में जितनी सहभागिता रोहित की थी उतनी ही महत्वाकांक्षी लड़की काव्या की भी।

‘अब लौटने से क्या हासिल’ कहानी के मार्मिक अंत को पढ़ते समय रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां मान्या के आँसुओं को शब्दों की शक्ल देने के लिए उपयुक्त जान पड़ती हैं।

“ सुन रहे हो प्रिय ?

तुम्हें मैं प्यार करती हूं ।

और जब नारी किसी नर से कहे

प्रिय! तुम्हें मैं प्यार करती हूं

तो उचित है

नर इसे सुन ले ठहर कर

प्रेम करने को भले ही वह न ठहरे ।”

 

तीनों कहानियों “सच्ची कविता झूठी कविता”, “मितरां कब मिलोगे?” तथा अंतिम कहानी “अब लौटने से क्या हासिल”!, की सबसे बड़ी खूबसूरती इनकी नायिकाएं हैं, जो आम परिवारों की बहुत ही साधारण सी महिलाएं हैं।

कोई क्रांतिकारी या बहुत पावरफुल महिलाएं नहीं।

पहले पहल वह प्रेम के कोमल स्पर्श के वशीभूत हो चक्रव्यूह में फँसती चली जाती हैं, प्रेम और विश्वास के नाम पर ठगी जाती है, प्रेम के बदले मिले धोखों से वह टूटती है कमजोर पड़ती है उधड़े संबंधों को पैबंद लगा बार बार जोड़ने की नाकाम कोशिश करती हैं। किंतु जैसे ही उन्हें अपने गहरे फँसे होने का अहसास होता है, छले जाने के सिलसिले खत्म होने की बजाय और बढ़ने लगते हैं वैसे ही यह साधारण और मासूम स्त्रियों को निर्णायक और मजबूत होने में भी देर नहीं लगाती ।

जिस प्रेम को वह नर्म पत्तियों वाला खूबसूरत पुष्प समझकर उसपर आसक्त हो जाती हैं, उसी प्रेम के जहरीला नाग बन कर गर्दन जकड़ लेने पर उसे काट फेंकने में भी गुरेज नहीं करतीं।

पाठक कहानियां पढ़ते समय उनमें रच बस जाता है, कहानियों के किरदार उसे अपनी सी कहानी कहते प्रतीत होते हैं।

कहानियों का विस्तार पठनीयता को अवरूद्ध नहीं करता। कहानी में आए मोड़ हमें अन्य संदर्भों की यात्रा उपरांत फिर मूल कथानक वाले सीधे व मुख्य मार्ग पर ही छोड़ जाते है।

लोक भाषा और देशज संवेदना का छौंक पाठक और पात्रों के मध्य भाव सेतु का काम करने में सहज ही कामयाब हो जाता है।

तीन लहरें स्त्री जीवन के तीन महत्वपूर्ण पक्षों प्रेम, स्वाभिमान और संघर्ष पर केंद्रित वर्तमान समय की सजों लेने लायक दस्तावेजी पुस्तक है।

कहानियों में उतरते हुए लेखिका का अनुभव और परिपक्वता महसूस किया जा सकता है।

डॉ. सोनी पांडेय का पूर्व में प्रकाशित तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के यशपाल कथा सम्मान से सम्मानित कहानी संग्रह ‘बलमाजी का स्टूडियो’ की कहानियों से स्वभाव में अलग रचना संसार बुनकर लेखिका संकेत करती हैं कि उन्हें मात्र गांव जवार की लेखिका वाली छवि में न बाधा जाए।

सुभदा पब्लिकेशन से छपी यह पुस्तक आकर्षक आवरण, मोटे और साफ पृष्ठों और सुंदर छपाई में अमेज़न पर उपलब्ध है साथ ही साथ इसे प्रकाशक से संपर्क कर ऑर्डर देकर भी मंगाया जा सकता है।

 

©चित्रा पवार, मेरठ, यूपी

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