लेखक की कलम से

हे महादेव …

हे शिव शंकर,हे परमेश्वर
तुम पूर्ण ब्रह्माण्ड हो
तुम्हीं कामना, योग्य अद्भुत
तुम्हीं विलक्षण स्वरूप हो
सृष्टि के अनंत पदार्थों में युक्त,
अनंत गगन,सर्वशक्तिमान हो
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हे प्रणव!तुम्हीं समग्र,तुम उदित
अस्त नहीं,तुम तिरोहित होते हो
तुम भाल पर तिलक स्वरूप
चन्द्र सुशोभित रखते हो
व्योम पर मस्तक तुम्हारा
यह तुम प्रमाणित करते हो |
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देखा है मैंने मंदिर-मंदिर में…..
जैसे प्रांगण भी सुसज्जित हो
अनुपम सुन्दरता से तराशीं हुईं
कई रूप में…तुम्हारी प्रतिमाओं को
कहीं बैद्यनाथ, कहीं नीलकंठ
कहीं महाकालेश्वर बन बैठे हो |
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तुम अपने आगमन की सूचना
हे शिव!आकर तुम दे जाते हो
सावन की पहली पहली बूंद में
जैसे जलमग्न होकर मतवाले हो
खुल जाती जैसे जटा तुम्हारी
गंग अविरलता से तरंगित हो |
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संचार हो तुम आशाओं का
नये अंकुर उद्भव तुम्हीं हो
नि:शब्द हो,कण-कण,तृण-तृण में
अपने चरण चिह्न छोड़ते रह जाते हो
तुम धर्म साम्य तुम्हीं प्रभाव साम्य
हे शंकर! तुम अलिन्द भूमि पर ध्वनित हो |
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फिर झांका….मैंने अन्तर्मन में….
तुम मेरे हृदय कलश में स्थित हो
प्रार्थना मेरी नीरव रहती
आज मेरी गर्जना है…..
हे शिव !हे करुणाकर!
तुम मुझे स्वरबद्ध हो, एकबार पुकार लो ||
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©इली मिश्रा, नई दिल्ली                       

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