लेखक की कलम से

सँवरने लगी हूं मैं …

 

गीत

 

मैं सजने लगी हूँ, सँवरने लगी हूं

तुम्हें पाके क्या क्या मैं करने लगी हूँ….2

 

अकेले में कबतक मैं आसूं बहाती

न तुम साथ देते तो मैं टूट जाती

मगर कैसा जादू ये तुमने किया है

तुम्हें देखकर मैं निखारने लगी हूँ

मैं सजने लगी हूँ …………….

 

तुम्हीं ने सिखाया मुझे प्यार करना

तुम्हीं ने सिखाया मुझे आंह भरना

बहुत खूबसूरत ये पल लग रहे हैं

तुम्हारे लिए मैं मचलने लगी हूँ

मैं सजने लगी हूँ ………..

 

नहीं है अभी का ये रिश्ता हमारा

कई जन्मों का है ये नाता हमारा

तुम्हीं से है महकी ये बगिया हमारी

तुम्हें पाके कलियों सी खिलने लगी हूँ

 

मैं सजने लगी हूँ, सँवरने लगी हूँ

तुम्हें पाके क्या क्या मैं करने लगी हूँ ।।

 

©गार्गी कौशिक, गाज़ियाबाद                                          

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