लेखक की कलम से

अरमानों की चिता ….

 

कभी कभी अरमानों की चिता भी सजाती हूं

गम से भरे समन्दर में गोते भी लगाती हूं।

 

चोट शब्दों के तीर से भी लगती हैं अक्सर।

मुस्कुरा कर जख्म को छुपा सहलाती भी हूं।

 

लुटा कर प्यार भरा आशियाना उल्फत में

मोहब्बत में तिरस्कार भी अक्सर सहती हूं।

 

ख्वाब आते नहीं आंखों में आसूं के सिवा

रातों को नींद नहीं दिन भर झपकी लगाती हूं।

 

कभी-कभी औरों के सुकून के लिए।

किसी के याद में दिल को जलाती भी हूं।

 

जला कर आस का दीपक सूरज की रोशनी में,

गम का अंधियारा भी मिटाती हूं।

 

ज़रूरी तो नहीं हर चाहत पूरी हो

मुहब्बत के बदले दर्द को अपनाती भी हूं।

 

 

नज़र अटक जाती है राहों के हर पदचापों पर।

बात-बात पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती हूं।।”

 

©अम्बिका झा, कांदिवली मुंबई महाराष्ट्र           

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