लेखक की कलम से

कर्मवीर गांधी …

तुम विश्व मंच पर हुए उदित
बन जग-जीवन के सूत्रधार,
पट पर पट उठा दिए मन से
कर नव चरित्र का नवोद्धार;
-सुमित्रानंदन पंत

2 अक्टूबर 1869 को जन्मे मोहनदास कर्मचंद गांधी को ‘गांधी’, राष्ट्रपिता और महात्मा गांधी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। कोई भी व्यक्ति जन्म से ही न तो किसी ‘राष्ट्र का पिता’ न ही ‘महान आत्मा’ होता है और न ही प्रेम, स्नेह एवं आदर का सम्मान सूचक ‘बापू’ के सम्बोधन से समादृत होता है। नि:संदेह किसी व्यक्ति द्वारा किये गये सर्वोत्तम कर्म ही उसे इन सम्बोधनों से सुशोभित करता है। गांधी जी ने भी अपने कर्म वर्षों से गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए भारत देश को आजादी दिलाई थी। उन्होंने अपने अहिंसात्मक नैतिक अस्त्रों द्वारा भारतीय समाज को भयरहित कर अंग्रेजों के दमन का सामना करने का अद्भुत साहस दिया था।

आज हमारा देश विश्व में सम्मानित होता है और उसकी आवाज को ध्यान से सुना जाता है। इसका मूल कारण महात्मा गांधी जैसे मनीषियों का महान व्यक्तित्व है। मानव प्रजाति अनादि काल से व्यक्तिगत, सामाजिक, जातीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शान्ति की स्थापना के लिए प्रयासरत रहती है। शांति के वातावरण में रहकर ही विश्व की उन्नति संभव है। गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में सत्य और अहिंसा का पालन किया। गांधी के ‘अहिंसा’ का मूल तत्व उनके दक्षिण आफ्रिका के वर्षों के संघर्षमय जीवन और उसकी सफलता थी। 46 वर्ष की उम्र में 1915 में वे दक्षिण अफ्रिका से भारत लौटे थे। लगभग 21 वर्ष वहां नस्लभेदी पाबंदियों के खिलाफ आन्दोलन चलाया। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी अच्छी पहचान थी। फिर भी भारत आकर यहां की राजनीति में सीधे हस्तक्षेप न करके उन्होंने रेल यात्रा कर यहां के लोगों से मिल-जुलकर यहां की स्थितियों का आंकलन किया। उसके बाद यहां के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को एकजुट कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए पूरे देश में जुलुस और हड़ताल का आयोजन किया।

गांधी जी ने अपने जीवन में जो संघर्ष किया उसका प्रभाव भारत की जनता पर भी पड़ा। उनका विश्वास था कि जनता सत्य और अहिंसा के उच्च आदर्शों का पालन करते हुए एक न एक दिन भारत को स्वाधीन करायेगी ही। इसलिए उन्होंने स्वयं को जनता का बना दिया। साबरमती आश्रम में रहते, नंगे पैर चलते, एक धोती व सूत से बनी चादर पहनते, जिसे चरखे पर स्वयं कातकर बनाते थे। शुद्ध शाकाहारी भोजन करते और आत्मशुद्धि के लिए लम्बे-लम्बे उपवास करते। कहने का आशय यह है कि स्वयं को उन्होंने भारत के एक आम जनता के रूप में ढाल लिया।

धीरे-धीरे ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जनान्दोलन बढ़ता ही गया। अंग्रेज सरकार दमन द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने में लगे रहे। इस बीच विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक गांधी जी को जेल में भी रहना पड़ा। अंतत: गांधी जी के नेतृत्व में देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई लेकिन विभाजन की पीड़ा के साथ। आजादी जिस विभाजन के साथ आई उसमें हमारी सारी सामाजिक सोच पर गांधी जी ने जो मर्यादा का दिशाबोध दिया था, वह ढांचा चरमरा गया। उसमें गांधी जी के जीवन के समस्त उपलब्धियों का अवमूल्यन था।

भारत के स्वाधीनता आन्दोलन व उसके लिए गांधी जी ने जो संघर्ष किए उसका प्रभाव समकालीन साहित्य पर भी पड़ा। गांधी जी के जीवन काल में ही उनके जीवन दर्शन से भारतीय जनजीवन और साहित्य प्रभावित दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद के साहित्य में जो राष्ट्रीय वातावरण निर्मित है उसका मूल कारण तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां कही जा सकती है। ‘रंगभूमि’ का सूरदास तो महात्मा गांधी का ही प्रतिरूप जान पड़ता है। ‘प्रेमाश्रय’, ‘कर्मभूमि’, ‘कायाकल्प’- इन सभी उपन्यासों पर गांधीवाद की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। प्रेमचंद के अलावा जैनेन्द्र में वाद के प्रभाव को सीमित क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचनाओं, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त के कृतियों पर गांधीवाद के सिद्धांतों का प्रभाव देखा जा सकता है। कहा जा सकता है कि तत्कालीन साहित्य पर भी उनका पूर्ण प्रभाव नजर आता है।

गांधी जी स्वयं भी एक लेखक थे। लिखने की प्रवृति उनमें आरंभ से ही थी। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्र के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के साथ उन्होंने अनेक पत्रिकाएं भी निकाली व कई पत्रों का संपादन भी किया। जिसमें ‘हरिजन’, ‘इंडियन ओपिनियन’, ‘यंग इंडिया’ आदि है। आमतौर पर वे गुजराती में लिखते थे जिसका समय-समय पर अपने सहयोगियों द्वारा हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद करवाते थे या स्वयं भी करते थे। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रिका से भारत आए तब उन्होंने ‘नवजीवन’ नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में ‘नवजीवन’ का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ। उनके द्वारा मौलिक रूप से लिखित – ‘हिन्द स्वराज’, ‘दक्षिण अफ्रिका के सत्याग्रह का इतिहास’, ‘सत्य के प्रयोग’, ‘गीता माता’ ये चार पुस्तकें है। श्रीमद्भागवत से गांधी जी का हार्दिक लगाव आजीवन रहा। श्रीमद्भागवत गीता के प्रत्येक अध्याय के भावों को सहज बोधगम्य रूप में उन्होंने सामान्य लोगों के लिए लिखा। गांधी जी ने अपने जीवन में दिन-प्रति-दिन जो कुछ भी कहा और लिखा उसे अनेक विद्वानों के सहयोग से ‘सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय’ नाम से भारत सरकार द्वारा एक ग्रन्थमाला के रूप में प्रकाशित किया गया है। इसके अतिरिक्त उनके समस्त साहित्य से महत्वपूर्ण अंशों को लेकर विभिन्न विषयों पर छोटी-छोटी पुस्तकें भी प्रकाशित होती रही हैं।

आज हमारा देश जिस सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों की दौर से गुजर रहा है, ऐसे समय में गांधी जी के सिद्धांत एवं दर्शन हमारे लिए आत्मबल और प्रेरणा के स्त्रोत हैं। तेज रफ्तार, गतिशील समाजिक-आर्थिक व्यवस्था के बावजूद गांधी जी द्वारा दिखाये गए रास्ते, उद्देश्य और कर्म आज भी प्राणवान है, प्रासंगिक है।

©डॉ. विभा सिंह, दिल्ली

Back to top button