लेखक की कलम से

दिल्ली : साँसें लीजिए, मगर मरने के लिए . . .

बचपन में राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट, क़ुतुब मीनार, लोटस टेम्पल, राष्ट्रपति भवन के बारे में किताबों में पढ़ते थे तो मन रोमांच से भर जाता था और बिहार के किसी भी मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों की तरह दिल्ली घूमने के सपने देखा करते थे। अगर कोई आस-पड़ोस से दिल्ली जाता तो उसे सामानों की बड़ी से लिस्ट थमा दी जाती थी कि ये भी लेकर आना और वो भी। और हम सप्ताहभर इंतज़ार करते थे कि कब वो आएगा और हमें हमारी चीज़ें मिल जाएगी। अगर वो चीज़ें ले आता तो उसे भगवान का कोई अवतार मान लिया जाता था और अगर वो चीज़ नहीं ला पाता तो वो किसी शैतान से कम नज़र नहीं आता था और कितनी ही गालियों का अनजाने में शिकार हो जाता था। कितने ही लोग यह कहते हुए पाए जाते थे-” पता नहीं, दिल्ली चला गया तो खुद को नवाब समझने लगा है। “दिल्ली से लाई चीज़ें जैसे कि कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम, परफ्यूम सब शेखी बघारने की वस्तुएँ हुआ करतीं थीं। दोस्तों-यारों में उसकी बड़ी शान हुआ करती थी जिसका अपना या दूर का कोई रिस्तेदार दिल्ली में रहा करता था। पूरे देश की रहन-सहन के स्तर का पैमाना दिल्ली वासियों के रहन सहन से तय किया जाता था। दिल्ली सभी राजनितिक गतिविधियों का केंद्र है इसलिए भी सब की निगाहें दिल्ली पर टिकी रहती थी।

बहुत पहले हमारे क्षेत्र के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने दिल्ली के बारे में लिखा था –

“अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली ! तू क्या कहती है ?

तू रानी बन गई, वेदना जनता क्योँ सहती है ?

सबके भाग दबा रक्खे है किसने अपने कर में ?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता, किस घर में ?”

दिल्ली तब भी प्रश्नों के गिरफ्त में थी और आज तो किसी और ही भयावह कारणों से यह प्रश्न के कटघरे में खड़ी है। तब जनता अपने मूलभूत कारकों-रोटी, कपड़ा और मकान के लिए लड़ रही थी और आज यह जीने के लिए लड़ रही है। दिल्ली विश्व की सबसे प्रदूषित राजधानी है और यह विश्व के सबसे प्रदूषित स्थानों ग़ाज़ियाबाद और फरीदाबाद से घिरकर स्वच्छ हवा के मामले में और भी लाचार नज़र आती है। जहाँ नॉर्वे, फ़िनलैंड, जर्मनी में पीपीएम 5 से 20 के बीच है। वहीं दिल्ली में यह आँकड़ा 500  से 600 के इर्द -गिर्द घूमता नज़र आता है जो कि किसी भी स्वस्थ व्यक्ति की जान लेने के लिए काफी है। कारण चाहे कारखाने हों, पड़ोसी राज्यों में पराली का जलाना हो, राजनीतिक उठापटक हो या कुछ और ही लेकिन दिल्ली अब हमारे सपनों की राजधानी के ताज को खोती नज़र आ रही है। हर कोई दिल्ली से बेहतर पर्यावरण वाले जगह में जाने की बातें कर रहा है। हम घर में बैठ कर भी साँसें लें तो जहर ही पी रहे हैं। हमारे बच्चों को भविष्य में बिलकुल तैयार मौत मिलेगी। आँखों में जलन, साँस लेने में तकलीफ, त्वचा पर धब्बे कितनी ही ऐसी बीमारियों ने दिल्लीवासियों को घेर रखा है। 10 में से हर 3 व्यक्ति फेफड़े के रोग का मरीज़ पाया जाता है। इन सब कारणों से दिल्ली में पर्यटकों की संख्या में 30% तक की कमी दर्ज की गई है। इस मौसम में दिल्ली में साँस लेना खुद को थोड़ा-थोड़ा मौत को करीब ले जाने के बराबर ही है।

घर वालों से लेकर पड़ोसियों तक को कितनी ख़ुशी होती थी कि जब किसी की नौकरी दिल्ली में लगती थी। उसके दिल्ली घूमने, रहने-खाने की चिंता नहीं रहती थी। वह दिल्ली को अपना दूसरा घर ही समझता थाई। लेकिन क्या अब भी ऐसा है ? सोचना पडेगा ! ! !

©सलिल सरोज, कार्यकारी अधिकारी, लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button