क्यों दहेज एक प्रथा कहलाती …
क्यों बिकती है?
क्यों बेची जाती है?
क्यों खरीद कर लड़कियां सजाई जाती है?
दहेज के नाम पर सब कुछ तो लेकर जाती है
फिर क्यों ससुराल में जलाई जाती है..
गृहलक्ष्मी और अन्नपूर्णा को दो वक्त की रोटी नहीं दी जाती है
न जाने मायके के नाम कई बातें बोल सताई जाती है
कभी नहीं समझा जाता प्यार को उसके
कभी नहीं सराही जाती
ऐसी लड़कियां तड़प – तड़प के मारी जाती हैं
रिश्ता तो निभाना चाहती है
पर हर रिश्तों से दूर कर दी जाती है
जिस घर से डोली निकलती
उसी घर में किस मुंह से वह फिर वापस जाती
दहेज के नाम पर बार -बार हैं लूटी जाती
देखते लोग तमाशा उसके हालात का
पर कितना धैर्य वह रख पाती
जिस आंचल में समेट कर लाती प्यार और स्नेह का सागर
उसी आंचल को फंदा बनाकर लटका दी जाती
हाय! वह भी क्या किस्मत लेकर आती
दहेज का चोट घुट – घुट कर सहती जाती
न जाने क्यों यह प्रथा समाज में आती
बाबुल के घर निकले चांद को
क्यों दहेज के नाम ग्रहण लगाया जाता
काश, हर बाबुल को बहू में अपनी बेटी नजर आती
उनके कांटों को चुन फूलों को राह पर सजा दी जाती।।
©डॉ. जानकी झा, कटक, ओडिशा