लेखक की कलम से

मृग कस्तूरी के चक्कर में …

मृग कस्तूरी के चक्कर में

चक्कर काट रहा चहु ओर।

ढूंढे जो अपने तन में फिर

 चक्कर काटने की जरूरत क्यूँ और??

मारा मारा फिरता मानव

मन मे पाले बड़ा सा चाह।

चाहत के इस आपाधापी में

सुख चैन हो रहा बेकार।।

जीवन का न लक्ष्य ही  निश्चित

 दौड़ रहा है अन्धाधुन्ध।

जगह जगह ठोकर खाकर भी

 दौड़े जा रहा है अन्धाधुन्ध।।

मृगमरीचिका बना हुआ है

मानव पर ये हावी ख्वाव।

तन मन को खाक कर रहा

 मृगमरीचिका वाला ख्वाव।।

जोड़ तोड़ और छल कपट संग

मानव बना रहे हैं राह।

उस राह पर चलकर मानव

कैसे कर लोगे भवसागर पार??

जीवन जीने के लिए जरूरत

 दो रोटी और चैन का सांस।

लूट खसोट और अधर्म से

 क्या कर सकते है मन को शांत??

बात करें उस मृग की तो

कस्तूरी ढूंढने में परेशान।

कौन बताए उस मृग को

 इसका हल तो है आसान।।

कस्तूरी ढूंढो अपने अंदर

हे मानव तुम हो महान।

छद्म और छल के कस्तूरी को

 ढूंढ ढूंढ क्यों होना परेशान।।

©कमलेशझा, फरीदाबाद                      

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