जातिवाद ख़त्म हो गया है क्या ???
संविधान की किताबों को पढ़कर और नेताओं के आदर्श भाषण को सुनकर कतिपय लगता है कि यह सामाजिक विभीषिका अपने गर्त को जा चुकी है, परंतु यथार्थ इस दिवास्वप्न से कहीं कोसो दूर अपनी नियति पर रोती नज़र आती है। इस सच के दर्शन को मुझे नहीं लगता कि किसी को हिमालय पर तपस्या या भूख-पानी त्याग कर ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता है। मैं जिस प्रदेश से आता हूँ, उसे जातिवाद का गढ़ कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बिहार के बेगूसराय जिले की दशा शायद अभी भी मनुवादी सोच से ज्यादा दूर तक नहीं निकल पाई है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि बेगूसराय, कम्युनिस्ट प्रभाव के चलते लेनिनग्राद के नाम से तो प्रसिद्ध हुआ लेकिन धरातल तक यह विचार पहुंचते-पहुंचते पूरी तरह सूख गई। आज भी यहां की और कमोबेश पूरे देश की राजनीति जातिवाद के समीकरण पर टिकी हुई है। भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, कुर्मी, यादव जिसको भी समय-समय पर मौका मिला, सत्ता का सुख भोगा लेकिन इसको खत्म करने की किसी ने कोशिश नहीं की। कोशिश बस इतनी हुई कि यदि निम्न जाति सत्ता में है तो उच्च जाति को अपमानित किया जाए और उच्च जाति सत्ता में है तो निम्न जाति को दबाया जाए। इसी उहापोह में यह जातिगत रंजिश और भी फलीभूत हो चुकी है।
आज हम 21 वीं सदी के भारत में हैं जहां रोज़ चांद पर जाने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन जाति वह चीज़ है जो कभी नहीं जाती है वाली बिहार की प्रचलित कहावत पूरी तरह से परिलक्षित हो रही है। सोशल मीडिया पर हर समुदाय अपनी अलग पहचान को बरकरार रखने हेतु दूसरों को गरियाता नज़र आता है। सबके अपने जाति प्रतीक बने हुए हैं। धनुष, कृपाण, कटार, बंदूक फिर से फैशन में आ गए हैं। इन प्रतीकों में से कौन शांति का प्रतीक है किसी जाति ने नहीं सोचा होगा।
सामान्य सोच यही है कि यह रोग सिर्फ गांव, कस्बों या छोटे शहरों तक ही सीमित है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में अपनी गाड़ियों के पीछे जाट, गुर्जर, खान, ब्राह्मण, राजपूत लिखाने का जुनून पूरे शबाब पर है। और दिल्ली में बढ़ती सड़क हिंसा में ऐसी सोच का बहुत बड़ा हाथ है।
जाने-अनजाने जातिवाद अपने किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है। बिहार में अमूमन कुमार-कुमारी टाइटल रखने का प्रचलन है। लेकिन जातिवाद के कोण से इन टाइटल को निम्न जाति का प्रतीक माना जाता है। बस में, ट्रेन में, टेम्पो में या सार्वजनिक स्थानों पर भी लोग यह पूछने से नहीं हिचकते कि आपका पूरा नाम क्या है यानि आप किस जाति से आते हैं। सरकारी दफ्तरों में आज भी ब्राह्मण अगर निचली पद पर है तो भी उसे पंडित कहकर संबोधित किया जाता है। लेकिन अगर कुर्मी, चमार, पाशी बड़े ओहदे पर हो तो भी किसी को इतने आदर से पुकारा जाता सुनना इतना सहज नहीं है।
जातिवाद की शिक्षा या महक हवाओं में भी होती है। बच्चों को खेल-खेल में भी पता होता है कि फील्डिंग करने वाला, बैटिंग करने वाला और बॉलिंग करने वाला किस जाति का है और फिर सारे नियम और कई परिपाटी उसी तरह से निर्धारित किए जाते हैं। बिहार में गिल्ली डंडा का खेल बड़ा मशहूर है। बेगूसराय की जातिवाद का नियम बच्चों और खेल पर भी लागू होता है। अगर दौड़ने वाला बच्चा निम्न जाति का है तो उसे उच्च जाति से दुगुना दौड़ाया जाएगा। यह आंखों देखी कहानी है।
हालांकि यह जातिगत भेदभाव व्यक्तिगत रूप से मुझ तक कम पहुंचा क्योंकि मेरी पढ़ाई राज्य के बाहर सैनिक स्कूल तिलैया से हुई, लेकिन मेरे जो मित्र वहां उस अवधि में रहे, उनको यह दंश वर्षों तक झेलना पड़ा। शिक्षा से जातिवाद अवश्य कम होती दिखती है लेकिन खत्म होती है, यह कहना फिलहाल दुस्साहस ही होगा।