लेखक की कलम से
पूरे बरस जली है होली …
संबंधों ने आग उगल दी
अनुबंधों ने पीठ फेर ली।
स्वार्थों के नागों ने डस ली
रिश्तों की अनुपम अठखेली।।
पूरे बरस जली है होली।
प्रेम प्रीति का उपवन सूना,
वृन्दावन का मधुबन सूना।
नहीं कृष्ण की बजी बांसुरी,
कोई राधा फाग न खेली।।
पूरे बरस जली है होली।
वन उपवन की महक ठगी सी,
नींद नींद हर जगी जगी सी।
धुआं धुआं अनुबंध हो गया,
क्यों ऐसा संबंध हो गया।।
मन की गांठ न कोई खोली।
पूरे बरस जली है होली।
क्या कुछ ऐसा कृत्य हो गया,?
क्यों जीवन का नृत्य खो गया।?
मीत!गीत सब कहाँ खो गए?
क्यों आखों मे अश्रु बो गए?
कहाँ गई वो हंसी ठिठोली?
पूरे बरस जली है होली।
आओ मिल बैठें आपस मे
प्रेम-प्यार का उपवन सीचें।
जो ऊर्जा विध्वंस कर रही,
और सिरा उसका मत खीचें।।
(तो) पूरे बरस चलेगी होली।
पूरे बरस जली है होली।।
©आशा जोशी, लातूर, महाराष्ट्र