लेखक की कलम से

दिल के बंद दरवाजे……

इन गलियों में बंद दरवाजों को यूं , क्या खोलेंगे।।
इन खामोशीयो को यूहीं कैसे समझोगे।।
इन बंद दरवाज़े में लगे ताले के पीछे कितनी कहानियों में खेलते बचपन छूट गए है।।
इन दरवाजों को खोलते ही दिलो के अरमान के आंसू दम तो़ड रहे है।।
बहुत सुंदर लगते थे, उन दिनों जब ये ताले खुले थे।।
ना रिश्तों के बंधन , एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े यूं ही निकला करते थे।।
ना ताले लगते थे , बस बोल के चले जाते थे, धयान रखना।।
यूं ही आवाजें लगा कर बुलाया करते थे।।
वहीं सुबह-सुबह सारा काम निपटा कर गप्पे हका करते थे।।
वहीं आपस की मेलजोल वहीं प्यार मोहब्बत की बाते।।
वहीं दुपहर का खाना, वहीं शाम की चाय।।
वहीं थडी पर बैठ कर घंटों बाते किया करते थे।।
वहीं बेठे बैठे सब्जियां काटी जाती थी।।
वहीं बेठे बैठे एक दूसरे के सर पर तेल लगाया करते थे।।
वहीं बेठे बैठे एक दूसरे की चोटी भी बनाया करते थे।।
वहीं सारा सारा दिन निकला करते थे।।
वहीं स्कूल का बैग रखते ही उन दरवाजे पर झूला करते थे।।
क्या खोलेगे इन जंक लगे तालों को ।।
आज रिश्ते भी ख़ामोश है ,जैसे इन बंद दरवाजे की विरानीयत झलका रहे है।।
आज रिश्ते भी वैसे ही ख़ामोश होते जा रहे है।।
जब तक खुद आवाज़ ना दो , वहां से भी आवाज़ नहीं आती।।
दिलों में बढ़ती हुए उम्मीदों ने तोड़ दिए यू रिश्ते।।
यूं ना दवाजो पर ताले लगाओ।।
दिलों में बसे प्यार को यूं ना छुपायो।।
प्यार दिखाओ प्यार से रिश्ते के फूलों को पनपायो।।

©हर्षिता दावर, नई दिल्ली    

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