लेखक की कलम से

समंदर कभी देखा नहीं…….

सुना है रेत में सीपियाँ
बिखरी रहती हैं

रेत भीगी रहती है
भाषा के शब्द
पानी बहा ले जाता है
एहसास बाकी रहते हैं
शायद वही नमी
रेत को ज़िंदा रखती है

मैं फिर से रेत का इक
घरौंदा बनाना चाहती हूँ
रेत में सीपियाँ इकठ्ठा
करना चाहती हूँ
किनारे किनारे चलती
दूर निकलना चाहती हूँ

गुम अपनी सोच में
ईश्वर मनाना चाहती हूँ

गुनगुनी सी धूप में
रेत पर अपने पैरों के
निशान बनाना चाहती हूँ

अंजुलि में ले पानी को
भीतर समंदर उतार
लेना चाहती हूँ
खाली होती अंजुलि को
देखना चाहती हूँ
मेरे जैसी ही लगती है
या कुछ और खाली हो जाती है

कभी देखा नहीं समन्दर
मैं समंदर देखना चाहती हूँ

मैं चाहती हूँ देखना
मेरे भीतर का ज्वारभाटा
उससे कितना मिलता है
मेरी खामोशी उससे
गहरी है …..

उसके दुख मुझसे ज्यादा हैं
या मैं यूँ ही रोती रहती हूँ

मेरे आंसूओ का स्वाद
उससे खारा है या
उसके जैसा है

डूबता सूरज कैसा लगता है
पानी में मिलकर पानी हो जाता है
या वैसा ही आग रहता है

डरती भी हूँ मगर
एकांत में, उस अकेलेपन में
कहीं भीतर उतर न जाऊँ
फिर डूब न जाऊँ कहीं…….

©सीमा गुप्ता, पंचकुला, हरियाणा

Back to top button