छत्तीसगढ़

बल है तो जल है, जल है तो कल है: भाग 1

✍अमित जोगी

अगर कोई मुझसे पूछे कि छत्तीसगढ़ के लिए सबसे बड़ी समस्या क्या है, तो मैं उसे दो-टूक जवाब दूँगा : जल। ये हमारे लिए नक्सलवाद और शराब से भी गम्भीर चुनौती है। अपने कॉलम के माध्यम से अगले 3 सप्ताह, मैं इस समस्या के कारणों- और समाधान- का विश्लेषण करूँगा। शुरुआत मैं बस्तर से कर रहा हूँ।

जीवन-दायिनी

इंद्रावती नदी को बस्तर की जीवन दायिनी कहा जाता है। ओडिशा-छत्तीसगढ़ सीमा के कोटपाड़ से लेकर छत्तीसगढ़-तेलेंगाना सीमा के भद्रकाली तक इंद्रावती नदी बस्तर संभाग में 233 किलोमीटर की दूरी तय करती है। इस नदी के जल के उपयोग को लेकर 1975, 1978 और 1980 में तात्कालीन मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र राज्य सरकारों के बीच गोदावरी वॉटर डिस्प्यूट ट्रायब्यूनल (GWDT) के समक्ष इन मुद्दों पर आमसहमति बनी थी जिसके आधार पर ट्रायब्यूनल ने कई अवार्ड पारित करें।

42 साल बीत जाने के बाद भी इनका पालन नहीं हो पाया है जिसके कारण बस्तर में 3 प्रकार की जल-समस्याएँ देखने को मिलती है: (1) पानी की कमी (जिसका कारण ओडिशा है); (2) पानी का अनुपयोग (जिसका फ़ायदा तेलेंगाना लेना चाहता है) और (3) पानी से विसर्जन (जिसके लिए आंध्र प्रदेश ज़िम्मेदार है)। (नोट: चौथी समस्या पानी का प्रदूषण अंतर्राज्यीय नहीं होने के कारण इस लेख का हिस्सा नहीं है।)

1. पानी की कमी

1978 में पारित अवार्ड के अनुसार में ओडिशा ने बस्तर में प्रतिवर्ष न्यूनतम 120 TMC (हज़ार मिल्यन घन फ़ुट) पानी छोड़ने पर अपनी सहमति प्रदान करी थी जबकि सेंट्रल वॉटर कमीशन (CWC) के जल मापक यंत्रों के अनुसार 2017 में 74.438 और 2018 में 65.821 TMC ही पानी छोड़ा गया। मतलब अवार्ड द्वारा पारित पानी की मात्रा का आधा ही ओडिशा छत्तीसगढ़ को दे रहा है और हर साल ये और कम होते जा रहा है।

जोरानाला का झटका धीरे से लगे

जब 2001 में मेरे पिताजी ने इस बारे में ओडिशा सरकार से जवाब माँगा था, तब उसने कहा था कि प्रवाह में कमी का कारण भौगोलिक है। जोरानाला, जो कि इंद्रावती की सहायक-नदी है, का पहले पानी इंद्रावती में आता था किंतु अब उलटा होने लगा है और इंद्रावती का पानी जोरानाला में बहने लगा है। विषय की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इंद्रावती में अवार्ड के अनुरूप जल-प्रवाह नियंत्रित करने के लिए ज़ोरानाला में 18 महीनों में 52 करोड़ रुपए की लागत का ढांचा (स्ट्रकचर) बनाने की सम्पूर्ण राशि ओडिशा सरकार को दे भी दी थी।

छत्तीसगढ़ शासन द्वारा सम्पूर्ण राशि मिलने के बाद भी 18 साल बाद भी ओडिशा सरकार द्वारा स्ट्रकचर का निर्माण नहीं करा गया है। जब भी काम चालू होता है, ओडिशा के कुछ नेता कुल्हाड़ी और सब्बल लेकर विरोध करने पहुँच जाते हैं !

वैसे भी मैंने खुद कोटपाड़ जाकर कागज़ की नाँव बनाकर ओडिशा द्वारा बताए कारण का परीक्षण किया है और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ इसमें रत्ती भर भी सत्यता नहीं है। (वीडियो देखें) बस्तर में इंद्रावती में पानी के प्रवाह में कमी का कारण जोरानाला नहीं बल्कि ओडिशा द्वारा बिना छत्तीसगढ़ को विश्वास में लिए 3 अतिरिक्त बाँधों का निर्माण है: (1) नौरंगपुर में खातीगुड़ा बांध (जिसमें 91 TMC जल रोका जा रहा है), (3) निर्माणाधीन टेलाँगिरी बांध (जिसमें 2.62 TMC जल रोकना प्रस्तावित है) तथा (3) कालाहांडी में मुखिगुड़ा जलाशय।

2. पानी का अनुपयोग

19.12.1975 को पारित 12 अलग-अलग अवार्ड (G1 से G12) के अनुसार तात्कालीन मध्य प्रदेश (वर्तमान छत्तीसगढ़) सरकार को बस्तर में इंद्रावती-गोदावरी बेसिन की नदियों से प्रतिवर्ष 273 TMC पानी के उपयोग हेतु 9 वृहद (मेजर) परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करी गई थी: बोधघाट, कुटरु क्रमांक 1-2, भोपालपतनम क्रमांक 1-2, निबरा-कोटरी, नुपुर क्रमांक 1-2, मटनार और चित्रकोट।

सूखता मानव-चिड़ियाघर

इनमें से मात्र एक- बोधघाट- परियोजना में काम शुरू हुआ था और 1980 तक 180 करोड़ रुपए (वर्तमान की प्रचलित दरों में 5000 करोड़ रुपए) भी ख़र्च हो चुके थे। किंतु तथाकथित ‘पर्यावरण लॉबी’(जिसे मैं ‘मानव-चिड़ियाघर लॉबी’कहता हूँ क्योंकि वे पर्यावरण के नाम पर बस्तरवासियों को एक मानव-चिड़ियाघर में क़ैद करना चाहते हैं) और उग्रवादी-वामपंथियों के अनुचित और हास्यास्पद विरोध- जैसे कि बिजली निकालने के बाद पानी की ताक़त ख़त्म हो जाती है और उसका उपयोग पीने और सिंचाई के लिए नहीं किया जा सकता ! के कारण इसे राज्य सरकार को 1980 में अधूरा ही छोड़ना पड़ा था। 

मेरे पिताजी के द्वारा 2002 में प्रस्तुत आवेदन पत्र पर 2005 में भारत सरकार ने अंततः बोधघाट परियोजना को पुनः प्रारम्भ कर पूर्ण करने की अनुमति प्रदान करी किंतु पूर्ववर्ती डॉक्टर रमन सिंह की भाजपा सरकार और वर्तमान भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार ने अनुमति मिलने के बावजूद इस परियोजना को किन्ही अज्ञात कारणों से शुरू नहीं करा है। कुल मिलाकर बस्तर की जीवन-दायिनी कही जाने वाली इंद्रावती नदी के 273 TMC में से 247 TMC- मतलब 90.5%- जल के उपयोग से 20 लाख से ज़्यादा बस्तरवासी 42 साल बाद भी सरकार की इच्छा-शक्ति के अभाव और उदासीनता के कारण वंचित हैं।

बुरी नज़र वाले…

इसी का परिणाम है कि 4.7.2019 को तेलंगाना सरकार ने भारत सरकार के माध्यम से बस्तर में इंद्रावती के 247 TMC अनुपयोगी (अनयूज़्ड) जल के उपयोग के लिए छत्तीसगढ़ शासन से NOC (अनापत्ति प्रमाण पत्र) की माँग कर डाली। जिस 247 TMC पानी पर बस्तरवासियों का प्रथम अधिकार है, उसे अब तेलंगाना ख़ुद के उपयोग में लाना चाहता है। वो इस पानी को ‘गंगा-कावेरी जोड़ो राष्ट्रीय परियोजना’के अंतर्गत नागार्जुन सागर बाँध में छोड़ने के बहाने गोदावरी (इचंपल्ली-जानमपेटा) कावेरी लिंक, देव-दुल्ला और सृजला-सृवंती परियोजनाओं के निर्माण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से NOC चाहती है। विगत 8 महीनों से छत्तीसगढ़ का तेलेंगाना को NOC देने के बारे में विचार भी करना मेरी दृष्टि में बस्तरवासियों के विरुद्ध अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है।

ये पहली बार नहीं है कि तेलेंगाना ने इंद्रावती के पानी को बुरी नज़र से देखा है। 2002 में तत्कालीन अविभाजित आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने मेरे पिता जी को उक्त बाँधों के भूमिपूजन के लिए निमंत्रण दिया था। तब उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहके मना कर दिया था कि “मैं आऊँगा तो ज़रूर लेकिन भूमिपूजन करने नहीं बल्कि आमरण अनशन पर बैठने।“ 

3. पानी से विसर्जन

GWDT के 1980 के अवार्ड के अनुसार आंध्र प्रदेश को गोदावरी नदी पर पोलावरम में बांध बनाने की इस शर्थ पर अनुमति प्रदान की गई थी कि कहीं पर भी डुबान का स्तर 150 फुट से ऊँचा नहीं होना चाहिए। कुछ ही महीनों में ये बांध पूरा बन जाएगा। डुबान का अधिकृत स्तर 150 से कहीं ज़्यादा 185 फुट हो चुका है। इस परियोजना से दक्षिण बस्तर के 45 हज़ार परिवारों को दंश झेलना पड़ेगा। सुकमा जिले के 17 गांव और 85 पारा-टोले डूबान में आ रहे हैं। इससे कई तरह की खनिज संपदा और वनोपज की भी जलसमाधि हो जाएगी। वहीं दोरला और कोया जैसी संरक्षित अति पिछड़ी जनजातियों के लोगों को पलायन करना होगा जिसके कारण उनकी संस्कृति दुनिया से विलोपित को जाएगी। शबरी नदी (गोदावरी की सहायक-नदी) का बैक वाटर जिले के तीनों विकासखण्ड, सुकमा, कोंटा व छिंदगढ़ में तबाही लाएगा। संभवतः ये देश का पहला प्रकरण होगा जहां डुबान में आने वाले ग्राम पंचायतों में आज तक भूअर्जन और पुनर्वास अधिनियम के अनिवार्य प्रावधानों के अंतर्गत कोई जनसुनवाई नहीं कराई गई है।

पोलावरम की पोल-खोल

दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस ने पोलावरम में छत्तीसगढ़ के हितों की अनदेखी करी है। कांग्रेस ने 2013 में पोलावरम बांध का इंदिरा सागर परियोजना नामकरण करके राष्ट्रीय परियोजना घोषित कर दिया था और 2014 में भाजपा ने इस के निर्माण में लगने वाली 70000 करोड़ रुपए की 100% राशि केंद्र सरकार द्वारा खर्च करने की घोषणा भी कर दी। 2015 में जब कांग्रेस के विधायक होने के नाते मैं इसका विरोध करने कोंटा जा रहा था, तो मुझे तात्कालीन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रभारी बी॰के॰ हरिप्रसाद ने जाने से ये कह कर रोका कि मेरा ऐसा करना पार्टी-विरोधी होगा क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष पोलावरम बांध बनाने का कमिटमेंट कर चुकी हैं। इसके बावजूद मैं वहाँ गया। यही नहीं, इस संबंध में मैं 18.3.2016 को विधानसभा में संकल्प भी लाया था जिसे सदन ने सर्वसम्मति से पारित करके भारत सरकार को भेज दिया था। किंतु प्रधान मंत्री ने इस संकल्प को कूड़ेदान में फेंक दिया और पोलावरम बांध का निर्माण 2020 तक पूरा करने का फरमान भी जारी कर दिया। कुल मिलाकर बिना छत्तीसगढ़ में कोई जनसुनवाई हुए, बिना ग्रामसभा की अनुमति के, सभी नियमों और संवैधानिक व्यवस्थाओं को ताक पर रखकर अन्यायपूर्ण ढंग से पोलावरम बाँध का निर्माण किया जा रहा है जो की छत्तीसगढ़ के हित में नहीं है।

बल है तो जल है

इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद बात तो ये है कि जब दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा पोलावरम बांध बनाने के लिए संसद में ‘आंध्र प्रदेश राज्य पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक’का पुरज़ोर समर्थन कर रहे थे, तो डुबान में आने वाले तेलेंगाना के TRS (तेलेंगाना राष्ट्रीय समिति) और ओडिशा के BJD (बीजू जनता दल) के सांसदों ने कई दिनों तक सदन चलने नहीं दिया था। TRS ने तेलेंगाना बंद का आह्वान किया था और BJD ने केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ ओडिशा विधान सभा का विशेष सत्र बुलाकर निंदा प्रस्ताव पारित कराया था। लेकिन जिस प्रदेश के लोग इस बांध का सबसे अधिक दंश झेलने वाले हैं, उसके 16 सांसदों में से किसी एक ने भी पूरी बहस के दौरान अपना मूँह तक नहीं खोला। और तो और छत्तीसगढ़ के वरिष्ट आदिवासी नेता और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष नंद कुमार साय ने तो पोलावरम जाकर आंध्र प्रदेश का खुलकर समर्थन भी कर दिया।

दिल्ली के इस दबाव के कारण ही छत्तीसगढ़ के दोनों राष्ट्रीय दलों के नेताओं के मूँह में ताला लग चुका है। मुझे डर है कि उनके मूँह के ताले खुलने के पहले तक कहीं उत्तर-मध्य बस्तर भारत का सबसे बड़ा रेगिस्तान और दक्षिण बस्तर भारत का सबसे बड़ा जलाशय नहीं बन जाएँ?

इंतज़ार करिए, सोमवार, 17 फ़रवरी 2020 तक। : {भाग 2}

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