बिलासपुर

सूने शहर में दान की रोटियां और दाताओं की तस्वीरें

✍ ■ नथमल शर्मा

 

 

अरपा किनारे बसे अपने बिलासपुर में एक चौक है। यहां हमेशा भीड़-भाड़ रहती (थी)। इन दिनों यह भी सूना-सूना सा है। कोरोना से सबको बचना जो है। अपने ही शहर के एक बुजुर्ग खड़े हैं इस चौक पर। दानवीर देवकीनंदन दीक्षित। पता नहीं कितने लोग एक पल रूक कर कभी निहारते होंगे उस स्टैच्यू को? नए बच्चों में कितने जानते होंगे ?

 

अरपा के बिलकुल पास का यह देवकीनंदन दीक्षित चौक बहुत सूना है। एक किनारे अशोक प्रसूति गृह है। आज जो 60 के पार है, ज्यादातर ने यहीं जन्म लिया। इसी के किनारे एक फूल वाला बैठता है। दीवाली, नवरात्रि और बाकी त्यौहारों पर भी। सामने कन्या स्कूल की शिक्षिकाएं और कलेक्टोरेट से लौटतीं बहुत सी लिपिकाएं, ज्यादातर यहीं से फूल ले जातीं। एक किनारे पर समोसे, जलेबी की भीनी ख़ुशबू तो सामने पेट्रोल पंप की गंध। बाजू में विराजे हनुमान और स्कूल किनारे से दूर तक फल वालों की पंक्ति। यहीं एक खंभे पर लिखा है राम वनगमन मार्ग। रोजाना दौड़ते भागते लोगों में से बहुत कम ने ही पढ़ा होगा। अब तो कोई नहीं पढ़ रहा। कोरोना विषाणुओं ने सब सूनसान कर दिया।

देखती है देवकीनंदन दीक्षित की आंखें। सबसे बड़े दानी रहे। अपना सबकुछ इस शहर को दे गए। देवकीनंदन दीक्षित कन्या स्कूल, खपरगंज की प्राथमिक स्कूल, दीक्षित प्रसूति गृह, सदर बाज़ार में 2700 वर्ग फ़ीट की एक दुकान रेड क्रास सोसायटी के लिए। इतना ही नहीं अंतिम यात्रा के लिए मुक्तिधाम भी और कारीछापर गांव में 65 एकड़ जमीन दे दी नगर निगम को दान में। देवकी बाबू ने अपने घर का सारा सामान भी दे दिया दान में। बाकायदा वसीयत करके।

ऐसे महादानी के शहर में इन दिनों पुलिस की सीटियां गूंजती है। अभी दो दिन पहले फ्लैग मार्च से आती बूटों की धमक से मोहल्ले और सड़कें कांप गई थी। कोरोना से बचने घरों में रहना है पर भूख है कि बार-बार बाहर ले आती है। बाहर कोई रोटियां पकड़ाकर फोटो खिंचवा रहा होता है। घर में कोई नन्ही दूध के लिए इंतज़ार कर रही होती है।

कुछ बरस पहले देवकी बाबू की याद में एक समारोह हुआ था। शायद आजादी के बाद पहला समारोह। उसमें दस-बारह दानदाताओं को सम्मानित किया गया था। ये दानदाता अपने घरों में उस सम्मान पत्र को निहारते होंगे। कुछ निकले भी होंगे। कुछ ने रेडक्रास को चेक देकर दानी होने का सुख महसूस कर लिया होगा। देख रही सूने चौक से देवकी बाबू की आंखें।

दानवीरों का यह शहर बहुत सूना-सूना सा है आज। बरसों पहले, छत्तीसगढ़ नया-नया ही बना था। एक कलेक्टर जो खुद को इस शहर का बेटा मानता है, ने इसका रंग रूप बदलने की कोशिश की। बदला भी। भव्य छत्तीसगढ़ भवन बना तो चौक चौराहे-चौड़े हुए। सड़कें संवरी। लोहे के कुछ भव्य द्वार भी बने जिन पर बनवाने वाले सेठों के नाम लिखे हैं। आज वह बेटा प्रदेश का मुख्य सचिव है। बीते बरसों में गड्ढों में तो गिरते-मरते लोगों को देखा है सबने। वो जरा अलग किस्सा है।

देवकी बाबू के इस शहर में जो आया यहीं का होकर रह गया। आज तो स्टेशन, बस स्टैंड सब सूनसान है। बाहर गए लोग या तो वहीं फंसे हैं या पैदल लौट रहे हैं। ये लौटने का क्रम बरसों से जारी है। बरसों पहले रेलवे स्टेशन पर ऐसा ही एक परिवार आया। गाड़ी बदल कर कहीं जाना था। समय था। परिवार के मुखिया को लगा जरा बिलासपुर नाम के इस शहर को देख आऊं। उस समय का सदर बाज़ार। छितानी-मितानी परिवार के जलवे। वह भी उनकी देहरी पर आया। उम्मीद से ज्यादा मिला।

दुबेजी ने कहा- यहीं आ जाओ। काम-धाम करो। अनमने मन से ही सही परिवार को लेकर आ गया वह। खूब मेहनत की और शहर का सेठ कहलाया। जिसकी गद्दी पर सारे नेता, अफसर, व्यापारी बैठना अपनी शान समझते। आज वह गद्दी नहीं रही। किस्से रह गए। देवकी बाबू तो 1936 में चले गए। पिछले 84 बरस में वैसा और कोई क्यों नहीं हुआ? अरपा ने दुलार तो सबको बराबरी का दिया, तो फिर? इस शहर की गलियों में खेलकर बड़े हुए बच्चे आज इसी शहर के बड़े नेता हैं। सूने शहर में भूख है। गांव लौटते उदास लोग हैं।

हजारों लोगों के घरों में राशन खत्म हो रहा है, तो दवाइयों के लिए पैसे नहीं बचे। रोटियां बांटकर तस्वीरें खिंचवा रहे अपने बेटे-बेटियों को देख रही है अरपा। साथ ही तरसती है अरपा किसी और देवकी बाबू की तरह के नाम के लिए। सूने चौक पर खड़ी प्रतिमा के पास से अभी एक पुलिस गाड़ी गुजरी है। कोरोना से डरी दुनिया घरों में कैद है। सूखी अरपा और देवकी बाबू की सूनी आंखों में अब भी एक आस है। कोई फिर आएगा। कुछ दिनों बाद ही सही जब आएंगे लोग घरों से बाहर तो एक बार अपने इस दानवीर के पास आएंगे। अपनी अरपा की रेत को छूकर कहेंगे हम तेरे बेटे हैं लाएंगे इसमें पानी।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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