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गांवों की ओर पैदल चला मजलूमों का कारवां, खड़े हो गए कई सवाल

मुंबई {हेमलता म्हस्के} । विश्वव्यापी कोरोना विषाणु के घातक हमले से मुक्ति के लिए जब लॉक डाउन लागू करने की घोषणा की गई तो देश के सभी छोटे-बड़े शहरों के संपन्न समृद्ध लोग तो अपने संस्थान और कारखाने बंद कर अपने-अपने घरों में कैद हो गए और जश्न मानने में जुट गए पर रोजाना कम पैसों पर उनकी सेवा और उनके व्यापार में सहयोग करने वाले प्रवासी दिहाड़ी मजदूर, फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले, छोटे-छोटे दुकानदार, रेहड़ी पटरी वाले, बोझा ढोने वाले, पानी पिलाने वाले और रिक्शा चलाने वालों के साथ घरों में पोछा लगाने वाली महिलाएं व कूड़ा कचरा बीन कर अपनी भूख मिटाने वाले बच्चे तक सड़कों पर आ गए। इनमें ज्यादातर रोजी रोटी की मुसीबत में उलझे, दिन में कमाने और रात को खाने वाले, पुलों के नीचे, झुग्गियों में रहने वाले लोग हैं।

पिछले 3 दिनों से पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के विभिन्न इलाकों से निकल कर सड़कों पर हजारों की संख्या में अनेक कतारों में पैदल चलकर अपने गांव जा रहे लोगों के दृश्य दिल दहलाने वाले हैं। ऐसा लगता है मानो उन्हें विश्वव्यापी कोरो ना से मरने का उतना भय नहीं, जितना पैसे ख़तम होने और खाद्य वस्तुओं के बेतहाशा दाम बढने के कारण भूख प्यास से मरने का डर ज्यादा हो गया हो। उनके इस आकस्मिक और हैरान कर देने वाले पलायन ने देश के दुख को और गहरा कर दिया है। जो लोग अपने पूरे जीवन का सारा हासिल सिर पर लाद कर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए निकल पड़े हैं, उनको सरकार और समाज से कोई उम्मीद नहीं है, वे सिर्फ अपने हौसले से ही अब तक जिंदा रहे हैं।

वे बिना कोई सवाल उठाए और बिना कोई मांग किए, वहीं अपने गांव के लिए चल पड़े, जहां से वे कभी अपने छोटे-छोटे सपनों को साकार करने की उम्मीद लेकर आए थे। अपने अपने गांव की ओर बढ़ रहे इन लोगों के कदम अब कई तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं, जिनका जवाब न केवल मौजूदा सरकार के बल्कि अब तक की सभी सरकारों के कर्ता धर्ताओं को और उनके साथ विकास की नीतियां बनाने वाले योजनाकारों को भी देना होगा। ये दृश्य जाहिर कर रहे हैं देश की नीतियों में आमूल चूल बुनियादी परिवर्तन लाना होगा, नहीं तो आने वाले कल में सभी तबाही के मंजर में तब्दील हो जाएंगे। उन्हें मरने के लिए किसी खतरनाक वायरस की चपेट में आने का इंतजार नहीं करना होगा।

सड़कों पर अपने गांव वापसी के लिए नाक पर मास्क लगाए या कपड़ों से ढके, पैदल चलते लोगों में स्त्रियां, पुरुष और बच्चे बच्चियां माथे पर अपनी गठरी पोटरी लिए, मां या पिता या बहन की गोद में या कंधे पर बच्चे और बच्चियां पिछले 3 दिनों से चल पड़ी हैं अपने उन गांवों की ओर, जहां से आजीविका के लिए शहरों में आए थे। भूखे प्यासे। धीमे धीमे कदम बढ़ाते हुए, गर्मी, ठंडी और बरसात जैसी अनेक कठिनाइयों से जूझते हुए उन्होंने मुश्किल सफर के लिए खुद को पूरी तरह से झोंक दिया है। इस सफर में कईयों की मौत भी हो गई है, फिर भी शहरों से विमुख होकर बे उम्मीदी से दुखी होकर गांवों की ओर चल पड़ा उनका कारवां थम नहीं रहा है। रास्ते में किसी ने खाने को दे दिए तो ठीक। नहीं दिए तब भी वे रुक नहीं रहे। ऐसी विपत्ति में ना सरकार ने उनकी कोई परवाह की और ना ही उन लोगों ने जिनकी सुख सुविधाओं के लिए कठोर मेहनत करते आ रहे थे।

लोकतंत्र का यह दृश्य बता रहा है कि उनके नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है। सत्ता के भूखे लोगों के लिए वे केवल वोट हैं सत्ता में उनकी कोई भागीदारी नहीं। वे लोकतंत्र के मालिक होते हुए अभी भी हाशिए पर ही हैं। देश के सभी छोटे बड़े शहरों में आज सौ मिलियन से ज्यादा ग्रामीण आजीविका के लिए आते रहे हैं क्योंकि सरकारी उपेक्षा और गलत नीतियों के कारण गांवों में आजीविका के अवसर ख़तम होते गए। गांवों को भारत की आत्मा कह कर सभाओं और किताबों में गुणगान जरूर किया जाता रहा लेकिन पिछले सत्तर सालों में गांव की दशा कैसी हो गई, यह अब किसी से छिपी नहीं है। सबसे पहले हमने किसानों को अपमानित किया। उनका हौसला तोड़ा।

सरकारों ने औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को प्राथमिकता दी। उनको ही ज्यादा प्रोत्साहन दिया। किसानों की घनघोर उपेक्षा की। नतीजतन वे आत्महत्या करने लगे। सामंतों और दबंगों का अत्याचार बढ़ने लगा। न्याय भी बिकने लगा। जातिवाद का नंगा नाच होने लगा। संपन्न ही संसाधनों पर अधिक से अधिक कब्जा जमाने लगे। सरकार ताकतवर होते हुए भी जब इन सब पर लगाम लगाने में पिछड़ने लगी तो ग्रामीणों को अपने गांव नरक जैसे लगने लगे और शहर उनके सपनों को साकार करने की उम्मीद बन गए लेकिन आज ये शहर भी उनके लिए काम नहीं आए। ऐसा इसलिए भी हुआ कि आजादी के बाद देश की सरकारों का ध्यान गांवों को संपन्न बनाने के मुकाबले शहरीकरण की ओर ज्यादा रहा।

नतीजतन बड़ी संख्या में अपने अपने गांव से लोग शहरों की ओर आने लगे। उन्हें अपना भविष्य अपने पुरखों के गांवों के बजाय शहरों में ही दिखाई पड़ने लगे। विभिन्न शहरों में इनकी सेवाएं हर संपन्न वर्ग के लोग लेते रहे लेकिन बदले में इनके लिए इस वर्ग ने क्या किया,इसका साफ जवाब पैदल चल रहे हजारों लोगों का हुजूम आज दे रहा है। शहरों ने बता दिया है कि अपने अपने गांव से पलायन कर शहरों में आकर अपने छोटे छोटे सपनों को साकार करने की उनकी उम्मीद कितना बड़ा छलावा था। मौजूदा समय में यह सच्चाई खुल कर सामने आ गई है कि शहरीकरण की ओर तेजी से बढ़ते अपने देश में इन मजदूरों का कोई भविष्य नहीं है। होता तो आज वे सड़कों पर नहीं होते।

लॉक डाउन की घोषणा के बाद सब कुछ बंद हो गया और लोग अपने घरों में बंद हो गए पर ये प्रवासी मजदूर खुद को कोरो ना से बचाने के लिए अपने घरों में बंद नहीं हो सके क्योंकि सब कुछ बंद हो जाने की वजह से उनके रोजगार ख़तम हो गए। खाने और अन्य जरूरतों को पूरी करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं रह गए तो उनके पास घर वापसी के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। लॉक डाउन के बाद परिवहन के सभी चक्के बेमियादी तौर पर थम गए तो उनके पास पैदल चल कर घर पहुंचने के लिए कोई उपाय नहीं सूझा।

एक और सवाल उठा रहे हैं कि “विदेशों में फंसे समर्थ लोगों को लाने के लिए विशेष विमान उड़ाए जाते हैं दूसरी ओर पैदल चलते हुए लोगों का हाल तीन दिन तक सोशल मीडिया पर दिखाए जाने के बाद बड़े एहसान की मुद्रा में कुछ बसें भेज दी जाती हैं बाद में कहते हैं कि बस भेजना गलती है क्योंकि इससे कोराना के संक्रमण का खतरा बढ़ गया है।” और इस तरह इन मजलूमों को पूरी तरह राम भरोसे छोड़ दिया गया है इनकी मुसीबत यहां तक ही भी बल्कि जिन गांवों के निवासी रहे हैं वहां उनका कोई स्वागत करने को तैयार नहीं क्योंकि उनको यह आशंका सता रही है कि कहीं शहरों से गांव लौटने वाले ग्रामीण कोरो ना विषाणु के वाहक ना हो। हालत उनकी यह हो गई कि वे ना घर के रह गए हैं और ना घाट के।

भारी संख्या में इनके सड़कों पर आने से देशभर के लोग विस्मित और विचलित जरूर हुए हैं यहां तक कि अपने मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माफी मांगी है और कहा है कि उनके पास तत्काल कोई और उपाय नहीं था। फिलहाल उनके पास कोई विकल्प नहीं है लेकिन उनको सोचना होगा कि देश में शहरीकरण को बढ़ावा देना किसके हित में है। आखिर किसका उद्धार करने के लिए सरकारें बनती हैं? क्या वे वैसी नीतियों को बढ़ावा देगी ताकि लोगों का गांवों से पलायन रुके। आजादी के बाद सभी संस्थान और सरकारी कार्यालय शहरों में ही स्थापित होते चले गए। रोजगार के छोटे बड़े अवसर शहरों में ही मिलने लगे। शहरों में भीड़ बढ़ती चली गई। शहरों में बुरी दशा में रहने वाले लोगों से वादे किए जाते रहे।

चुनाव के समय इनके वोट लेने के लिए फौरी तौर पर विभिन्न लुभावनी योजनाओं का ऐलान कर दिया जाता है और चुनाव संपन्न होते ही उनको भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। अभी भी प्रांतीय सीमाओं तक कुछ को बसों से पहुंचा कर सरकारों ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया गया है। शहरों से गांवों की ओर मौजूदा पलायन से सच में अनेक सवाल खड़े हो गए हैं। वे वास्तव में दोहरी मार के शिकार हो गए हैं। उनकी हालत फौरी तौर पर थोड़ी सी सुविधा देने से नहीं सुधारने वाली।

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