लेखक की कलम से

तुम सोचते बहुत हो…

किन विचारो में रहते हो,
न मुस्काते हो,
न खिलखिलाते हो,
लगता है तुम सोचते बहुत हो।
न दिखती क्या तुम्हे ये हरियाली,
न सुनी क्या कभी,बच्चो की किलकारी,
क्या माँ ने प्रेम से नही दुलराया,
इन पर भी तुझे,न मुस्काना आया।
ये क्या तूने कुछ हुलिया बनाया,
आईना भी देख तुझे घबराया,
क्यो इतना संकुचाते हो,
न हँसते हो,न मुस्काते हो,
लगता हैं तुम सोचते बहुत हो।
न भाव है न संवेदना हैं,
न दिखती किसी की वेदना हैं,
लगता है पाषाण बन गए हो,
खुद में कुछ तो टूट गए हो,
आओ चलो जरा संग हमारे,
संकोच जरा रखो किनारे,
कितना तुम सोचते हो,
शून्य में ही खोते हो।
रखो किनारे अब सोच ये अपनी,
चलो कुछ सैर करते है,
कर मुलाकात खुद से,
इस सोच से बाहर निकलते हैं।

 

©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी 

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