लेखक की कलम से

सुमत के चूल्हा …

ईंटा-पथरा ह जुड़थे, तभे घर मकान ह बनथे।

दया धरम ह जुड़थे, तभेआदमी इंसान बनथे।।

तइहा के गोठ बइहा लेगे, केहे ले कहाँ बनथे।

जे बात मानिस नीति के, उहिच इंसान बनथे।।

 

गृहस्थी के गाड़ी म, इंहा फंदाथे नर अउ नारी।

मया प्रेम के डोरी म, परिवार बंधाथे संगवारी।।

सुमत के चूल्हा के, सुक्खा रोटी घलक मिठाथे।

कुमत के सिलेंडर के, छप्पन भोग कहां सुहाथे।।

 

माँ-बाप, दादा-दादी ह, अनुभव के हरे खजाना ।

बेटी-बेटा, नाती-पन्थी, येहा हरे नवा जमाना ।।

भूतकाल के बात ह, वर्तमान ल कब सुहाथे।

जब खुद आथे वो जगा म, तभे समझ आथे।।

 

पति पत्नि सास ससुर, सीढ़ी के उपर सीढ़ी ।

कका काकी, भाई बहिनी, इही मया के पीढ़ी।।

घर कुरिया म टाइल्स लगाले, नी भागे दुख ।

दाई ददा ल ते कल्पाबे, कइसे मिलही सुख ।।

 

भाई -भाई म परेम हे त, घर म मथुरा कासी ।

देरानी-जेठानी म मया हे, त काहे के उदासी।।

बाप ल बेटा सुनव, बेटा के गोठ ल बाप गुनव।

परिवार बने बनाय बर, संस्कृति व्यवहार चुनव।।

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)            

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