लेखक की कलम से

नारी …

नारी

तुम जीवन में गंगा के

सामान नर्तन करती हो!

कल-कल ध्वनित होती,

जिधर से गुजरती हो,

भिगो देती भाव-जल राशियों से….

अपनी कर्म लहरों में

बांधे रखती हो

कल्याण भाव को….

जहां से बहती

तृष्णा पूरित करती

पोषित करती बंजर जीवन

तक को भी….

उर्जित करती कण-कण को….

अपनी मध्य समाहित रखती

रहस्यमयी जगती को…

नारी!

तुम कल-कल निर्बन्ध भाव से

अपनी जल-माया से

जीवंत बनाती,

प्रकृति पुरुष को भी

श्रृंगार हो तुम वसुधा की!!

नारी!

तुम निरंतर

एक निष्ठा भाव से

बहती

“गंगा” हो

जगति का मंगल

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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