लेखक की कलम से

अस्तित्व दीया का …

यदि धरती ने मिट्टी का, बलिदान किया न होता।

श्रमिक अपने हिस्से का, श्रमदान किया न होता।।

 

यदि मेघ का धरा पर, कहीं तेज वर्षण न होता।

कुम्हार के पैरों से मिट्टी का, नित घर्षण न होता।।

 

यदि सूरज की किरणों ने, उसे सुखाया न होता।

यदि आग की लपटों ने, भट्ठी में तपाया न होता।।

 

यदि दिन और रात का, सहज ही वियोग न होता।

यदि दीया और बाती का, महज संयोग न होता।।

 

यदि तिल ने खुद तेल का, अर्पण किया न होता।

यदि कपास ने रुई का, समर्पण किया न होता।।

 

यदि चकमक पत्थर को, कोई टकराया न होता।

यदि आग की लौ को, कोई पास लाया न होता।।

 

ये सब कुछ न होता तो, फिर कोई दीया न होता।

जग को प्रकाश सबको आस, कोई दिया न होता।।

 

फिर “अस्तित्व दीया का”, यूँ ही कहीं न दिखता।

मुट्ठी भर मिट्टी, सोने का मोल, कहीं न बिकता।।

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)

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