लेखक की कलम से
सुरमई शाम ….
खींच कर काजल एक सुरमई शाम
तराशना फिर खुद को एक चाहना है
वेदनाओं के झुरमुटों की साँकल
खोल दिल एक बार फिर उड़ना चाहना है
नब्ज मेरी थी या की तेरी धड़कन
सकूँ से रख सर तेरे सीने फिर कभी
ज़िंदगी का गीत गुनगुनाना चाहना है
तोड़ दी है फ़रेबी उलझने अब
नज़दीक बस तेरे एक आशियाना चाहना है
सिर फिरी एक तम्मन्ना खींचती है
बैठ कर किसी दरिया किनारे
तुझमें खोता अक्स मेरा झाँकना है
है इस शाम के आँचल में बेतरतीबी यादें
ढूँढ सीपी नए सिरे से बांधना है
मैं मिरी उलझने और बेमुर्रवत तू ख़याल
सजदे तेरे इस हंसी शाम एक रूहानी आरज़ू
रेत पर एक याद ताजमहल की मानिंद
बहते पानी में चिराग़ कोई जला
उसकी सिलवटों पर नाम तेरा टाँकना है ….
-सवि शर्मा, देहरादून