लेखक की कलम से

गुरू दक्षिणा …

हस्तिनापुर का श्वान,दौड़ता हांफता आया।
मुंह में भरे थे बाण,कोई समझ न कुछ भी पाया।।
अति उद्विग्न होकर आचार्य ने,सोचा अपने मन में।
कौन यहां पर श्रेष्ठ धनुर्धर,आया है अर्जुन से।।
कहा द्रोणाचार्य ने,जो भी हो सामने आओ।
कहां के हो तुम रहिवासी,अपना नाम बताओ।।
तभी झुरमुट से एक भील का बालक आया।
कर प्रणाम गुरुवर को,नाम एकलव्य बतलाया।।
मैं अरण्य में रहता हूं, धनुरक्रीडा में रत हूं।
मैं एक भील का बालक,व्याध राज का सुत हूं।।
पूंछा द्रोणाचार्य ने,कौन गुरु हैं तेरे।
कर प्रणाम गुरुवर को कहा,आप स्वयं गुरु मेरे।।
विस्मित हुए आचार्य,मै ने नहीं दी शिक्षा।
सत्य कहे आपने, एकदिन मैंने मांगी थी भिक्षा।।
यदि आप मुझे देंगे शिक्षा,तो जग में होगा सुयश।
परन्तु एक भीलपुत्र को,शिक्षित ना करने को आप थे विवश।।
अतः मैंने अरण्य में जाकर,की आपकी प्रतिमा स्थापना।
उसी प्रतिमा पूजन द्वारा,प्रारम्भ की धनुरूपासना। ।
यदि त्वं मेरे शिष्य हुए, तो मानो मेरी मंत्रना।
क्या आपने इस शिक्षक को, नहि दोगे गुरु दक्षिणा।।
यह सत्य है गुरुदेव, में नहीं देता कोई वक्तव्य।
आप मांगे गुरूदक्षिना, क्या नहि दे सकता है एकलव्य।।
गुरु दक्षिणा मांगने द्रोणाचार्य का अधर उठा।
आह! उन्होंने मांग ली,दाहिने हांथ का अंगूठा।।
विचार किया एकलव्य ने,अब तीर चलाऊंगा कैसे।
परन्तु गुरु की दक्षिणा ,देनी होगी चाहे जैसे।।
काट कर अंगूठा, रख दिया द्रोण के सम्मुख।
सब विस्मित से खड़े थे देख,गुरु दक्षिणा अद्भुत।।
जब जब द्रोण जैसे गुरुओं का, नाहक मान बढ़ाया जाएगा।
तब तब एकलव्य जैसी प्रतिभा का, सम्मान घटाया जाएगा

 

©क्षमा द्विवेदी, प्रयागराज                

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