लेखक की कलम से

मौन यंत्रणा …

 

किसी को लूटते देखा,

किसी को लूटाते देखा।

लालच था मन में,

या कोई मजबूरी थी?

 

कहीं किसी को मारते देखा,

और किसी को मरते देखा।

‌    कितना द्वेष था मन में,

या जीने की चाह न थी?

 

किसी को हारते देखा,

किसी को हराते देखा।

कितनी निराशा भरी थी,

या सबकुछ पाने की होड़ थी?

 

कभी किसी को रोते देखा,

कहीं किसी को रुलाते देखा।

कितनी पीड़ा थी हृदय में,

कि चोट पहुंचाने की आदत थी?

 

मानवता के उत्थान से विकास तक,

पुनः मानवता के पतन की प्रक्रिया तक।

श्वास निश्वास से निर्गत”आह”!

विवशता भरा जीवन का प्रवाह।

 

निरवता की दहलीज पर बैठ देखता रहा,

आंसूओं की काली स्याही से लिखता रहा।

सहता रहा हूं मौन यंत्रणा,

करता रहा मैं मौन अभिव्यक्ति।

 

 

 

©वर्षा महानन्दा, बरगढ़, ओडिशा           

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